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ठहर कर पूज्यश्री ने अपने पीयूषवर्षी सदुपदेशों से श्रावक समुदाय को सन्तुष्ट किया। लवणखेड़ा में राजकीय समस्त कार्यभार को वहन करने में वृषभ समान राजमंत्री एवं अपने (स्वयं सूरि जी महाराज के) पूर्वज वाहित्रक (छाजेड़) गोत्रीय सेठ उद्धरण ने उतुंग तोरण व शिखर से सुशोभित श्री शांतिनाथ भगवान् का महान विशाल मन्दिर करवाया था और शम्यानयन में अपने दीक्षा गुरु युग-प्रवरागमाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज का जन्म महोत्सव एवं खुद आ० श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज का जन्म तथा दीक्षा महोत्सव हुआ था। इस कारण इस स्थान का महत्व और भी अधिक था। इन दोनों ही नगरों में बड़े ही आनन्द से श्री शांतिनाथ प्रभु के दर्शन किए।
यहाँ से चलकर विधि-धर्म रूपी कमल वन उगाने के लिए सरोवर तुल्य जावालिपुर पधारे। वहाँ पर नाना प्रकार के उत्सव करने में तत्पर श्रीसंघ समस्त के किए हुए बड़े भारी महोत्सव से नगर में प्रवेश किया और अपने हस्तकमल से प्रतिष्ठित एवं जावालिपुर संघ के मनोवांछित पूर्ण करने में कृत-प्रतिज्ञ कल्पवृक्ष समान महातीर्थ स्वरूप भगवान् श्री महावीर देव के चरणों में विधिपूर्वक वन्दन किया। वहाँ मंत्रीश्वर श्रीमान् कुलधर के कुल में प्रदीप सदृश मंत्री भोजराज के पुत्ररत्न मंत्री सलखणसिंह तथा सेठ चाहड़ जी के पुत्ररत्न सा० झांझण आदि जावालिपुर के समस्त विधि-संघ समुदाय ने उच्चापुर (सिंध) वास्तव्य श्रेष्ठिवर्य हरिपाल के पुत्ररत्न श्रेष्ठी गोपाल जी आदि तथा देवराजपुर (देराउरसिंध) के समुदाय एवं तमाम उत्सव सम्बन्धी धुरा को धारण करने में वृषभ समान सा० जाल्हणी के पुत्ररत्न सा० तेजपाल तथा उनके लघुबन्धु सा० रुद्रपाल आदि पाटण के तथा जैसलमेर, शम्यानयन, श्रीमालपुर (भिन्नमाल), सत्यपुर (सांचौर), गुडहानगर आदि नाना ग्राम-नगर वास्तव्य विधि-संघ के अग्रगण्य श्रावक जनों की महामेदिनी की उपस्थिति में एवं अपने ज्ञान-ध्यान के बलातिशय से भावि कुशल को सब तरह जानने वाले आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज की अध्यक्षता में सं० १३८३ फाल्गुन वदि नवमी के दिन प्रतिष्ठा, व्रतग्रहण उपस्थापना, मालारोपण और सम्यक्त्वारोपणादि नन्दिनिमित्त बड़े ही ठाठ से एक विराट महोत्सव का आयोजन किया।
यह महोत्सव पन्द्रह दिन तक लगातार चलता रहा। इसमें स्वल्प समय बाद ही चारित्र लेने की भावना वाले लघु वयस्क वैरागियों को पुष्पाङ्क दान यानि पुष्पमाला आभूषणादि पहनाने निमित्त महामहोत्सव किये गये थे। स्थान-स्थान पर तालरास दिये जाते थे, अनेकों महर्द्धिक श्रावक लोग उदार दिल से सोना-चाँदी, उत्तम वस्त्र एवं अन्न दान देकर अपने द्रव्य को सफल कर रहे थे, सधवा स्त्रियाँ स्थान-स्थान पर मंगल गीत गा रही थीं। संघ पूजा, साधर्मिक वात्सल्य, बेरोक-टोक भोजनालय, अमारि घोषणा आदि अनेक विध पुण्य कार्यों से महती शासन प्रभावना हो रही थी। ज्यादा क्या कहा जाये? अत्यन्त विषम दुःषम (पंचम) काल के होते हुए एवं उस दुःषम काल के हाथ स्व-पर-पक्ष के उत्तम-मध्यम और जघन्य सभी लोगों के मस्तक पर पड़ा होते हुए भी, सुषम (चतुर्थ आरे के) काल की तरह समग्र स्व-पर-पक्ष के तथा असंख्य यवनों के हृदय में भी आश्चर्य पैदा करने वाला
और विधि-मार्ग की प्रभावना को नहीं सह सकने वाले द्वेषियों के हृदय में शूल की तरह चुभने वाला यह महोत्सव निर्विघ्न समाप्त हुआ।
(१८६) _Jain Education International 2010_04
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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