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________________ इस महोत्सव में सभी लोगों के क्रीड़ा स्थान एवं भगवान् वर्धमान स्वामी के चरण कमलों की स्पर्शना से तथा भगवान् श्री महावीर देव के श्री गौतमस्वामी आदि ११ गणधर वगैरह अनेक महामुनियों निर्वाण से पवित्र हुए वैभारगिरि पर्वत पर राजगृह नगर निवासी ठ० प्रतापसिंह के कुल में प्रदीप कल्प मंत्रिदलवंश के मुकुट मणि और संघ के मुखिया ठ० अचलसिंह के बनवाये हुए उत्तुंग तोरण शिखरोपशोभित चतुर्विंशति जिनालय प्रासाद में मूलनायक तथा स्थापन करने योग्य श्री महावीर देव आदि पाषाणमय एवं सर्व धातुमय अनेकों जिन - प्रतिमा, गुरु- मूर्ति व अधिष्ठायक देव - देवियों की प्रतिष्ठा हुई। साथ ही छः क्षुल्लकों की दीक्षा हुई, उनके नाम इस प्रकार हैं- न्यायकीर्ति, ललितकीर्ति, सोमकीर्ति, अमरकीर्ति, ज्ञानकीर्ति और देवकीर्ति । अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने माला ग्रहण करने पूर्वक सम्यक्त्व, सामायिक तथा द्वादश व्रतों को अंगीकार किया । १०६. इसके बाद सिन्ध - देशालंकार उच्चानगर तथा देवराजपुर वास्तव्य महर्द्धिक श्रावकों के गाढ़ अनुरोध से युगप्रवरागम श्री आर्य सुहस्तिसूरि के समान लोकोत्तर उज्ज्वल कार्यों को करने वाले, बिना अतिचार के कठिन चारित्र व ब्रह्मचर्य पालन एवं लोकोत्तर तपोविधान से आकर्षित होकर किंकर (नौकर ) वत् बने हुए अनेकों व्यन्तर देवताओं के सान्निध्य वाले, अपने ध्यानातिशय से आश्रित बने निरुपम गम्भीर देवी रूप कुंजरों वाले, अठारह हजार शीलांग रूपी महारथों को जीतने वाले, कायिक-वाचिक-मानस भेदों में से प्रत्येक के कृत, कारित व अनुमोदित भेद से त्रिधाविभक्त होने के कारण नवधा विभक्त छत्तीस प्रकार के सूरियों के गुण रूपी अच्छे घोड़ों तथा दूसरों से अजेय, अनेकों मुनिमण्डलरूपी पदातियों के श्रेष्ठ परिवार से युक्त, युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने चक्रवर्ती सम्राट की तरह म्लेच्छ समुदाय से परिपूर्ण विशाल सिंध देश में जमे हुए उदण्ड मिथ्यात्व रूपी भूपति उखाड़ कर उसके स्थान में अपने आश्रित विधि-धर्म रूपी राजा की स्थापना के लिए चैत्रमास के कृष्ण पक्ष में जालौर से विजय यात्रा का मुहूर्त किया, यानि सिंध की ओर प्रयाण किया । मार्ग में स्थान-स्थान पर होते हुए शुभ शकुनों से प्रेरणा पाते हुए, रास्ते में दूसरी बार आये हुए (अपने जन्म स्थान) श्री शम्यानयन तथा श्री खेड़नगरादि सभी स्थानों में अपनी आज्ञा रूपी भूपाल की स्थापना करते हुए क्रमशः मरुस्थल देश के मुख समान सर्वाधिक सम्पत्तिशाली जैसलमेर पधारे। वहाँ के महादुर्ग (किले) में अड्डा जमा कर बैठे हुए और अन्य सामान्य मनुष्य से अजेय महा अज्ञान रूपी दैत्य को भगाने का महाराज का वहाँ आने का मुख्य उद्देश्य था । राजकीय व नागरिक जनों के अपरिमित समुदाय के साथ नाना प्रकार के वाजित्र बजते हुए, भक्तजन उत्तम श्रावकों द्वारा मुक्तहस्त प्रचुर दान दिये जाते हुये, स्थानीय विधि-संघ के किये हुए समग्र लोगों को आश्चर्योत्पादक महामहोत्सव के साथ सूरि महाराज ने नगर में प्रवेश करके अपने हस्त-कमल से प्रतिष्ठित तमाम विघ्न परम्परा का नाश करने में तत्पर देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ स्वामी के चरणों में वन्दन किया । बाद में वहाँ पर पन्द्रह दिन तक रहकर अपनी वाक्चातुरी रूप खङ्गलता से अज्ञान रूपी दैत्य का उच्छेदन करने के साथ ज्ञानावबोधरूपी भूपाल को स्थापित किया। बाद में उच्चापुर व देवराजपुर के श्रावक समुदाय के साथ पूज्यश्री ने सिंध की तरफ विहार किया । प्रचण्ड ग्रीष्म ऋतु थी फिर भी संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (१८७) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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