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________________ मारवाड़ के तीर्थों की यात्रा करते हुए जैसलमेर पधारे और सं० १८३८ से ४० तक वहीं रहे। संवत् १८३८ में आपश्री ने क्रियोद्धार किया और साधु-परम्परा के लिये कई विशिष्ट नियम बनाये। गुरु महाराज साथ ही थे। सं० १८४३ में बंगाल आकर बालूचर में चातुर्मास किया। यहाँ भगवती सूत्र जैसे अर्थ गंभीर आगम की वाचना (व्याख्यान) की। सं० १८४८ तक आप पूरब देश में ही विचरण कर धर्मप्रचार करते रहे। सं० १८५० में बीकानेर होते हुए सं० १८५१ जैसलमेर पधारे। गुरु महाराज का वहाँ स्वर्गवास हो गया। सं० १८५२ जैसलमेर, सं० १८५३ बीकानेर में चातुर्मास कर, सं० १८५४ में घाणेराव संघ के साथ गिरनार और शत्रुजय पधारे। सं० १८५५ में गच्छनायक श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको वाचक पद दिया। उनके पट्टधर श्री जिनहर्षसूरि जी ने उपाध्याय पद से अलंकृत किया। सं० १८५५ में सूरत से अंतरिक्ष जी यात्रा करते हुए नागपुर गये। सं० १८५६ से जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, किशनगढ़, देशनोक, अजमेर आदि राजस्थान के विभिन्न स्थानों में विचरण करते रहे। सं० १८७३ पौष कृष्ण १४ मंगलवार को आप बीकानेर में स्वर्गवासी हुए। रेलदादा जी में आपकी चरण पादुकाएँ, सीमंधर जिनालय व सुगन जी महाराज के उपाश्रय में आपकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हुईं। ___ एक बार आप जब जैसलमेर में थे तब महाराजा जोधपुर ने जैसलमेर पर आक्रमण कर दिया। महारावल जी की सेना भी रणभूमि में उतर पड़ी पर विजय प्राप्त करना कठिन था। ऐसी विषम परिस्थिति में महारावल जी ने आपश्री के पास आकर लज्जा रखने की प्रार्थना की। आपने एक नगारा मंगवा कर उस पर सर्वतोभद्र यंत्र लिख दिया, जिसे लेकर महारावल जी डंके की चोट गर्जारव करते हुए युद्ध क्षेत्र में आगे बढ़े। यंत्र के अमोघ प्रभाव से शत्रुसेना पलायन कर गई। महारावल जी विजयी होकर आये। वे आपके परम भक्त तो थे ही, जैन धर्म पर भी दृढ़ श्रद्धालु हो गये। एक दिन सभा में महारावल जी ने एक ज्योतिषी से अपनी आयु के सम्बन्ध में प्रश्न किया। ज्योतिषी ने सात वर्ष आयु शेष बतलाई। नरेश्वर ने गुरु महाराज से इसका निर्णय देने की प्रार्थना की तो आपश्री ने सत्रह वर्ष पर्यन्त निरापद आयु बतलाई। आपके कथनानुसार रावल जी सत्रह वर्ष जीवित रहे और आपका भविष्य कथन सत्य प्रमाणित हुआ। तीर्थयात्रा :-आपने शत्रुजय, गिरनार, आबू, शंखेश्वर, सम्मेतशिखर, पावापुरी, पटना, राजगृह, क्षत्रियकुण्ड, अंतरिक्षजी, घोघाबंदर, लौद्रवा, नाकोड़ा, फलवर्द्धि, गौड़ी पार्श्वनाथ, जीरावला, खंभात आदि अनेक तीर्थों की यात्राएँ की थीं। सं० १८६६ में संघपति राजाराम गिडिया व तिलोकचंद लूणिया द्वारा आपश्री के उपदेश से शत्रुजय-गिरनार आदि समस्त तीर्थों का यात्री संघ निकला, जिसमें चार श्रीपूज्य आचार्य और बहुसंख्यक यति-साधु एवं देश के विभिन्न नगरों से आया हुआ यात्री संघ सम्मिलित था। प्रतिष्ठाएँ :-आपने अजीमगंज, महिमापुर, महाजनटोली (आरा), पटना, राजगृह, देवीकोट, देशनोक, अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, मंडोवर आदि विभिन्न स्थानों में जिनालयों व यंत्र-पट्टादि की प्रतिष्ठाएँ (३५४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ___Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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