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________________ कराई थीं। बंगाल से कच्छ तक एवं राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, दिल्ली प्रदेशादि में सर्वत्र विचरण कर धर्मप्रचार किया था । ग्रन्थ-रचना :-आप अपने समय के बड़े भारी गीतार्थ विद्वान्, चिन्तनशील और आगम प्रकरणादि के गंभीर अभ्यासी थे । आपने संस्कृत व मरु-गुर्जर भाषा में अनेक विद्वत्तापूर्ण मौलिक ग्रन्थ, प्रश्नोत्तर ग्रन्थ व अनेक ग्रन्थों पर टीकाओं का निर्माण किया था; जिनमें तर्कसंग्रहफक्किका, गौतमीयकाव्यवृत्ति, खरतरगच्छपट्टावली, आत्मप्रबोध, श्रावकविधिप्रकाश, साधुविधिप्रकाश, यशोधरचरित्र, सूक्ति रत्नावलीस्वोपज्ञ वृत्ति, प्रश्नोत्तरसार्द्धशतक, अंबड़चरित्र, विज्ञानचन्द्रिका, चातुर्मासिकव्याख्यान, अष्टाह्निकाव्याख्यान, मेरुत्रयोदयीव्याख्यान, होलिकाव्याख्यान, श्रीपालचरित्रवृत्ति, समरादित्यचरित्र (अपूर्ण) आदि संवतोल्लेख वाले तथा जिन-स्तुति, चतुर्विंशतिचैत्यवदन, प्रतिक्रमणहेतवः, संग्रहणी सपर्याय आदि एवं स्तोत्र स्तवनादि तथा मरु - गुर्जर भाषा की भी संख्याबद्ध रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनकी सूची यहाँ सीमित स्थान में देना संभव नहीं । आपके अपूर्ण ग्रन्थ समरादित्यचरित्र को विद्वान् मुनि सुमतिवर्द्धन ने १८७४ में रच कर पूर्ण किया । सुमतिवर्द्धन की और भी कई कृतियाँ उपलब्ध हैं। इनके शिष्य चारित्रसागर ने साधुविधिप्रकाश का भाषानुवाद किया व आपके पास विद्याध्ययन करने वाले दूसरे विद्वान् उम्मेदचन्द्र के भी प्रश्नोत्तरसारशतक व दीवालीव्याख्यानादि रचनाएँ उपलब्ध हैं । जब श्री क्षमाकल्याण जी का सं० १८७३ पौष वदि १४ मंगलवार को बीकानेर में स्वर्गवास हो गया तो उसी दिन अपने परम भक्त सम्प्रतिराम व्यास को जैसलमेर और लौद्रवाजी तीर्थ के बीच में आपने दर्शन दिये । व्यास जी ने दो दिन बाद जैसलमेर आने पर जब आपश्री के स्वर्गवासी हो जाने की खबर सुनी तो वे अवाक् हो गए। उनकी दो दिन पूर्व प्रत्यक्ष दर्शन होने की बात ने सारे संघ को आश्चर्यचकित कर दिया । शिष्य परम्परा :- आपके कल्याणविजय, विवेकविजय ( दोनों की दीक्षा सं० १८३५ में हुई थी), विद्यानन्दन और धर्मविशाल, जिनका दूसरा नाम धर्मानन्द जी है, शिष्य थे । धर्मविशाल जी की परम्परा में राजसागर जी के प्रशिष्य एवं ऋद्धिसागर जी के शिष्य गणाधीश सुखसागर जी हुए। धर्मानन्द जी के दूसरे शिष्य सुमतिमण्डन जी (सुगन जी) द्वारा अनेक पूजादि साहित्य रचित हैं । वे पहले संवेगी थे बाद में शिथिल हो गए। खरतरगच्छदीक्षानन्दी सूची के अनुसार दो अन्य प्रशिष्यों के नामोल्लेख प्राप्त हैं :- गुणानन्द और ज्ञानानन्द ( दीक्षा सं० १८५६ ) । श्री क्षमाकल्याण जी सं० १८३८ में अपने गुरु महाराज के साथ सर्वथा परिग्रह त्यागी (संवेगी ) होकर अपने वस्त्र भी यतिजनों से भिन्नता दिखाने के लिए कत्थे के पानी में डुबो कर पहनने लगे थे । वर्तमान में उस रंग भेद की उपयोगिता भी नहीं रही । उपाध्याय श्री क्षमाकल्याण जी बड़े चारित्रपात्र और पुण्यात्मा थे। आज खरतरगच्छ के लगभग २०० साधु-साध्वी आपकी ही परम्परा / समुदाय के हैं जो सुखसागर जी महाराज का संघाड़ा (समुदाय) कहलाता है । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (३५५) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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