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क्षमाकल्याणजी के वासक्षेप का महत्त्व :- संविग्नपक्षीय महोपाध्याय क्षमाकल्याण जी की परम्परा में श्री सुखसागर जी महाराज के समुदाय में दीक्षानामकरण संस्कार के समय उद्घोषित किया जाता है "कोटिकगण, वज्रशाखा, चन्द्रकुल, खरतरविरुद, महो० क्षमाकल्याणजी की वासक्षेप, सुखसागर जी का समुदाय, वर्तमान आचार्य............. आदि । "
इस उद्घोष में महो० क्षमाकल्याण जी के वासक्षेप का उच्चारण विशिष्ट स्थान रखता है। दीक्षादान के समय आचार्य द्वारा प्रदत्त वासक्षेप अपना विशेष महत्त्व रखती है, किन्तु तत्कालीन आचार्यगण श्रीपूज्यजी महाराज थे अतः संविग्नपक्षीय साधु परम्परा में उसे उपयुक्त न समझ कर क्षमाकल्याणजी के वासक्षेप की परम्परा सुरक्षित रखी गयी। उसी पूर्व वासक्षेप में तत्कालीन पदधारी गीतार्थ साधु नवीन वासक्षेप का मिश्रण कर प्रदान करते रहे हैं। यह वर्तमान में खरतरगच्छ-सुखसागर जी महाराज की परम्परा में सर्वमान्य है ।
(४) श्री धर्मानन्द
इनकी दीक्षा सं० १८७० ज्येष्ठ वदि ६ को जयपुर में हुई, दीक्षा नाम धर्मविशाल हुआ। आपने सं० १८७४ आषाढ़ शुक्ला ६ को बीकानेर रेलदादा जी में श्री क्षमाकल्याणोपाध्याय जी के चरण प्रतिष्ठित किये। आपके उपदेश से श्री भांडासर जी मन्दिर के परिसर में श्री सीमंधर स्वामी के जिनालय का निर्माण हुआ और सं० १८८७ आषाढ़ सुदि १० को श्री जिनहर्षसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठा हुई। सं० १८७८ कार्तिक सुदि ५ को आपके द्वारा प्रतिष्ठित सिद्धचक्रयंत्र देशनोक में है। सं० १८८६ माघ सुदि ५ को बीकानेर में राजाराम को रत्नराज नाम से दीक्षित किया, संभवतः यही राजसागर जी नाम से प्रसिद्ध हुए हों । सं० १९१२ में शिष्य सुगनजी की दीक्षा द्वि० आषाढ़ सुदि १ को हुई, सुमतिमण्डन नाम रखा गया। ये अच्छे विद्वान् और कवि हुए हैं। बीकानेर का उपाश्रय धर्मानन्द जी या सुगन जी का उपाश्रय कहलाता है। श्री धर्मानन्द जी के चरण सं० १९२८ ज्येष्ठ वदि २ को रेलदादा जी में सुमतिमण्डन ने प्रतिष्ठित किये थे । अन्तिम अवस्था में इनके आचार में कुछ शैथिल्य आ गया था । सं० १९६८ माघ शुक्ल ५ बुधवार को प्रतिष्ठित इनके चरण प्राप्त हैं। खरतरगच्छ दीक्षा नन्दी सूची के अनुसार सुमतिमण्डन (सुगनजी) के तीन शिष्य १. जयदत्त (दीक्षा सं० १९४१), २. हितकुशल (दीक्षा सं० १९५४), ३. राजसौभाग्य (दीक्षा सं० १९५६) और पौत्र शिष्य रत्नसुन्दर (दीक्षा सं० १९६३) थे।
(५) श्री राजसागर
इनकी दीक्षा सं० १८८६ माघ सुदि ५ को हुई । ये प्रकाण्ड विद्वान् थे । इन्होंने अपने ज्ञान बल से सैकड़ों लोगों को उपदेश देकर और माँस-मदिरा का त्याग करवा के दुर्व्यसनों से मुक्त कराया। इनके सम्बन्ध में विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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