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________________ (६) श्री ऋद्धिसागर ये उच्च कोटि के प्रभावशाली विद्वान् थे, साथ ही चमत्कारी और मन्त्रवादी भी । वृद्धजनों से ज्ञात होता है कि दैवीय मन्त्र शक्ति से इन्हें ऐसी विद्या प्राप्त थी कि वे इच्छानुसार आकाशगमन कर सकते थे। आबू तीर्थ की अंग्रेजों द्वारा आशातना देखकर इन्होंने विरोध किया था । राजकीय कार्यवाही में समय-समय पर स्वयं उपस्थित होते थे और अन्त में तीर्थ रक्षा हेतु गवर्नमेन्ट से ११ नियम प्रवृत्त करवाकर अपने कार्य में सफल हुए थे । त्रिस्तुतिक आचार्य विजय राजेन्द्रसूरि जी और तपागच्छ के झवेरसागर जी के चतुर्थ स्तुति सम्बन्धी शास्त्रार्थ के निर्णायकों में मण्डलाचार्य बालचन्द्रसूरि जी के साथ आप भी थे। सं० १९५२ में आप स्वर्गवासी हुए । ७) गणाधीश श्री सुखसागर आपका जन्म सरस्वती पत्तन (सरसा) के दूगड़ गोत्रीय मनसुखलाल जी की धर्मपत्नी जेती बाइ की कोख से सं० १८७६ में हुआ । तरुणावस्था में प्रविष्ट होते ही माता-पिता का वियोग हो जाने से अपनी बहन के आग्रह से आप जयपुर आ गए। गोलेछा माणकचंद जी, लक्ष्मीचंद जी की सहायता से किराने का व्यापार करने लगे। थोड़े दिनों में अपने व्यवहार कौशल्य के कारण उनके यहाँ मुनीम जैसे उत्तरदायित्व पूर्ण पद पर सुशोभित हो गए। बाल्यावस्था से ही धर्म ध्यान की ओर रुचि होने से सामायिक, पूजा, तपश्चर्या में विशेष संलग्न रहने लगे । सं० १९०६ में जयपुर में मुनि श्री राजसागर जी ऋद्धिसागर जी का चातुर्मास हुआ । उत्कृष्ट वैराग्य परिणाम होने से आपने निकट सम्बन्धियों से अनुमति प्राप्त कर क्षमत- क्षामणा के मांगलिक पर्व भाद्रपद सुदि ५ के दिन गुरु महाराज से दीक्षा ग्रहण की। गोलेछा परिवार ने दीक्षोत्सव धूमधाम से किया। मुनि श्री राजसागर जी ने आपको मुनि श्री ऋद्धिसागर जी का शिष्य घोषित किया। साध्वाचार और सिद्धान्त के अध्ययन में आप विशेष संलग्न थे। मार्गशीर्ष माह में आपकी बड़ी दीक्षा हुई । जैनागमों के अध्ययन से शास्त्रोक्त साधुजीवन की अपने वर्तमान जीवन से तुलना कर शिथिलाचार का त्याग आवश्यक समझ कर मुनि पद्मसागर जी व गुणवन्तसागर जी के साथ गुरु जी से अलग होकर सं० १९१८ में सिरोही में क्रियोद्धार किया । तदनन्तर सुविहित मार्ग का प्रचार व तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । अनुक्रम से तीर्थाधिराज शत्रुंजय की यात्रा कर फलौदी पधारे । इधर साध्वी श्री रूप श्री जी की शिष्या उद्योत श्री जी शिथिलाचार से सम्बन्ध विच्छेद कर सं० १९२२ में फलौदी आईं और आपको सुविहित सद्गुरु ज्ञात कर आपसे वासक्षेप लेकर आज्ञानुवर्तिनी हो गईं। सं० १९२४ में लक्ष्मीश्री जी की दीक्षा हुई। सं० १९२५ में भगवानदास ने गुरुश्री से दीक्षा और भगवानसागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। मुनि पद्मसागर जी फलौदी आने से पूर्व ही अलग हो चुके थे अत: आपका ३ साधु और ३ साध्वियों का समुदाय हुआ। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (३५७) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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