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में स्वर्गवासी हुए । सं० १८५२ में प्रतिष्ठित आपकी चरण पादुकाएँ जैसलमेर में हैं (बी०जै० ले०सं०, लेखांक २८४४) ।
( २ ) वाचक श्री अमृतधर्म गणि
आपका कच्छ देश के ओसवंशीय वृद्ध शाखा में जन्म हुआ। आपका नाम अर्जुन था । सं० १८०४ फाल्गुन सुदि १ को भुज नगर में श्री जिनलाभसूरि जी के कर-कमलों से दीक्षित होकर संविग्नपक्षीय श्री प्रीतिसागर जी के शिष्य हुए। शत्रुंजयादि तीर्थों की यात्रा की । सिद्धान्तों के योगोद्वहन किए । वैराग्य वासित तो थे ही, अतः पहले कुछ व्रत नियम ग्रहण किए और सं० १८३८ माघ सुदि ५ को सर्वथा परिग्रह का त्याग कर दिया ।
सं० १८२६ में श्री जिनलाभसूरि जी ने अपने पास बुलाकर सं० १८२७ में वाचनाचार्य पद से विभूषित किया। सं० १८४० तक उनके तथा पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ रहे। सं० १८४३ में आप पूरब देश पधारे, वहाँ के तीर्थों की यात्रा और धर्म प्रचार किया। आपके उपदेश से कई नवीन जिनालय बने, ध्वज दण्ड प्रतिष्ठादि उत्सव हुए। सं० १८४८ में पटना में सुदर्शन श्रेष्ठी के देहरे के समीप कोशा वेश्या का स्थान ( जमींदार से २०० में खरीदी हुई भूमि) पर आपके उपदेश से स्थूलिभद्र जी की देहरी बनी जिसमें आपने प्रतिष्ठा कराई। सं० १८५० का चातुर्मास बीकानेर में किया और सं० १८५१ का जैसलमेर चातुर्मास करने के पश्चात् मिती माघ सुदि ८ को वहाँ स्वर्गवासी हुए। वहाँ अमृतधर्म स्मृति शाला में आपके गुरुओं के चरणों के साथ आपके चरण प्रतिष्ठित हैं तथा क्षमाकल्याण जी द्वारा रचित अष्टक भी शिलालेख में उत्कीर्णित है जो 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' और 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' के लेखांक २८४१ में प्रकाशित है।
(३) उपाध्याय श्री क्षमाकल्याण
बीकानेर के निकटवर्ती केसरदेसर गाँव के ओसवाल वंशीय मालू गोत्र में आपश्री ने जन्म ग्रहण किया। आपका जन्म सं० १८०१ और जन्म नाम खुशालचंद था । सं० १८१२ में आपने गुरुवर्य अमृतधर्म गणि के पास आकर अध्ययन प्रारम्भ किया और सं० १८१६ मिती आषाढ़ वदि २ को जैसलमेर में खरतरगच्छनायक श्री जिनलाभसूरि जी के कर-कमलों से दीक्षित होकर क्षमाकल्याण जी नाम से श्री अमृतधर्म गणि के शिष्य रूप में प्रसिद्ध हुए । आपका शास्त्राध्ययन क्षेमकीर्ति शाखा के उपा० राजसोम जी के पास सं० १८२२ तक और बाद में उपा० रामविजय (रूपचंद जी) के सान्निध्य में सुचारु रूप से हुआ। आपका विचरण गच्छनायक श्री जिनलाभसूरि जी व श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ और अधिकांश गुरु महाराज श्री अमृतधर्म जी के सान्निध्य में हुआ । सं० १८२४ में बीकानेर, बाद में सं० १८२६ से १८३३ तक गुजरात-काठियावाड़ में विचरे । सं० १८३४ में आबू व
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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