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कविवर विनयचन्द्र : अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान आचार्य जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य महोपाध्याय समयसुन्दर की परम्परा में हुए ज्ञानतिलक के आप शिष्य थे। आपके जन्म स्थान, माता-पिता, जन्मतिथि, जाति आदि के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है। आपकी प्रथम रचना उत्तमकुमारचरित्रचौपाई वि०सं० १७५२ में पाटण में रची गई है। इस समय आपका ज्ञान और योग्यता को देखते हुए यदि २५ वर्ष भी मानें तो आपका जन्म लगभग १७२५-३० के मध्य माना जा सकता है। लगभग १५ वर्ष की आयु में आपने दीक्षा ग्रहण की होगी। इस प्रकार वि०सं० १७४०-४५ के बीच आपका दीक्षाकाल माना जा सकता है।
दीक्षा के उपरान्त आपने योग्य गुरुजनों के निर्देशन में संस्कृत भाषा एवं काव्य आदि का अच्छी प्रकार अध्ययन किया। आपने अपने गुरुजनों के साथ गुजरात और राजस्थान के विविध क्षेत्रों में विहार किया। यह बात आपके द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ से ज्ञात होती है। आप द्वारा रचित प्रमुख रचनायें इस प्रकार हैं
१. उत्तमकुमारचरित्रचौपाई (वि०सं० १७५२) २. विहरमानबीसीस्तवन (वि०सं० १७५४) ३. ग्यारहअंगसज्झाय (वि०सं० १७५५) ४. चतुर्विंशतिकास्तवन (वि०सं० १७५५)
इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में स्तवन, सज्झाय, बारहमासा के गीत आदि भी आपने रचे हैं। आपकी विभिन्न रचनाओं का संकलन श्री भंवरलाल जी नाहटा ने सम्पादित कर "विनयचन्द्रकृति कुसुमांजलि" के नाम से सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर से वि०सं० २०१८ में प्रकाशित कराया है। शिष्य परिवार : विनयचन्द्र जी के कितने शिष्य थे! इनकी परम्परा कब तक चली! इस सम्बन्ध में साधनाभाव से कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। ज्ञानसागर कृत चौबीसी-पत्र ७ की प्रशस्ति के आधार पर श्री भंवरलाल जी नाहटा ने आपके शिष्य विनयमन्दिर और उनके शिष्य खुस्यालचंद का उल्लेख किया है। विनयमन्दिर का पूर्व नाम अमीचन्द था और इनकी दीक्षा वि०सं० १७६९ ज्येष्ठ वदि ५ को बीकानेर में हुई थी।
विनयचन्द्र जी की अंतिम ज्ञात तिथि वि०सं० १७६९ है जब कि उन्होंने अमीचन्द को दीक्षित किया था। इसके बाद इनके सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती। अपने द्वारा रचित ग्रन्थों में भी उन्होंने वि०सं० १७५५ के बाद की कोई तिथि नहीं दी है, अत: आपके आयु के सम्बन्ध में कुछ भी जान पाना कठिन है।
(श्रीमद् देवचन्द्र
वाचक पुण्यप्रधान गणि भी युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के स्वहस्त दीक्षित शिष्य थे। इन्होंने भी आचार्य शाखा प्रवर्तक जिनसागरसूरि को गच्छनायक के रूप में स्वीकार कर लिया था। अतः इनकी
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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