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वि०सं० १६७४ में जिनसिंहसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् उनके शिष्य जिनराजसूरि गच्छनायक बने और उनके गुरुभ्राता जिनसागरसूरि को आचार्य पद प्रदान किया गया। दोनों गुरुभ्राता १२ वर्ष तक साथ-साथ ही रहे, परन्तु समयसुन्दर जी के प्रधान शिष्य वादी हर्षनन्दन के कारण दोनों आचार्यों में मतभेद हो गया और जिनसागरसूरि तथा उनका समुदाय अलग हो गया। हर्षनन्दन ने जिनसागरसूरि का पक्ष ग्रहण किया था, इसी कारण समयसुन्दर जी को भी जिनसागरसूरि के समुदाय में सम्मिलित होना पड़ा। शारीरिक-क्षीणता और वृद्धावस्था के कारण समयसुन्दर जी सं० १६९६ से अहमदाबाद में स्थायी रूप से रहने लगे और वि०सं० १७०३ चैत्र सुदि १३ को स्वर्गस्थ हुए। शिष्य परिवार : जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इनके ४२ शिष्य थे, किन्तु इनके ग्रन्थों की प्रशस्तियों को देखने से इनके कुछ ही शिष्यों और प्रशिष्यों के नाम ज्ञात होते हैं। इनके प्रमुख शिष्यों के नाम इस प्रकार है :१. वादी हर्षनन्दन २. सहजविमल ३. मेघविजय ४. मेरुकीर्ति ५. महिमासमुद्र ६. सुमतिकीर्ति वादी हर्षनन्दन : आप समयसुन्दरजी के प्रधान शिष्य एवं उदभट् विद्वान् थे। आपके द्वारा रचित विभिन्न कृतियाँ मिलती हैं जिनमें मध्याह्नव्याख्यानपद्धति (वि०सं० १६७३), ऋषिमंडलटीका, उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति (वि०सं० १७११) और स्थानाङ्गगाथागतवृत्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनके दो शिष्य हुए जयकीर्ति और दयाविमल। ये भी अच्छे ग्रंथकार थे। सहजविमल : इन्हीं के पठनार्थ समयसुन्दर जी ने रघुवंश और वाग्भटालंकार की टीका रची थी।
__समयसुन्दर के एक शिष्य मेघविजय की परम्परा में कवि विनयचन्द्र नामक एक प्रसिद्ध रचनाकार हुए हैं। इनके सम्बन्ध में यथास्थान विवरण दिया गया है। समयसुन्दर की रचनायें : समयसुन्दर जी ने व्याकरण, अनेकार्थी साहित्य, लक्षण, छन्द, ज्योतिष, पादपूर्ति साहित्य, चार्चिक, सैद्धांतिक और भाषात्मक गेय साहित्य की मौलिक एवं टीकायें रचकर भारतीयवाङ्मय को समृद्ध करने में अपना अतुलनीय योगदान दिया। आप द्वारा रचित प्रमुख रचनाओं में सारस्वतवृत्ति, सारस्वतरहस्य, अष्टलक्षी, मेघदूत प्रथम श्लोक के तीन अर्थ, रघुवंशटीका, रूपकमालाअवचूरि, जिनसिंहसूरिपदोत्सवकाव्य (रघुवंश तृतीय सर्ग की पाद पूर्ति), भावशतक, वाग्भटालंकारटीका, वृत्तरत्नाकरवृत्ति, सामाचारीशतक, सन्देहदोहावलीपर्याय, खरतरगच्छपट्टावली आदि एवं रास साहित्य तथा शताधिक स्तवन-गीतादि की चर्चा की जा सकती है। आपकी रचनाओं आदि के सम्बन्ध में श्री विनयसागर जी द्वारा लिखित ग्रन्थ महोपाध्याय समयसुन्दर द्रष्टव्य है।
आपके द्वारा निर्मित विश्व साहित्य में बेजोड़ और अनुपम कृति है-"अष्टलक्षी", इसमें "राजानो ददते सौख्यम्" प्रत्येक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ किये गये हैं। विक्रम संवत् १६४९ श्रावण शुक्ला तेरस २२ जुलाई १५९२ को राजा रामदास की वाटिका में सम्राट अकबर की उपस्थिति और अनेकों दिग्गज विद्वानों के समक्ष समयसुन्दर जी ने इस ग्रन्थ का वाचन किया था। समस्त विद्वान् हतप्रभ हो गये थे। विद्वानों के परामर्श से ही सम्राट अकबर ने इसे प्रामाणिक स्वीकार किया था।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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