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पूज्यश्री-हाँ, भ्रान्ति वश अनेक जगह लोग ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार अनेक तरह से बड़े विस्तार के साथ सैद्धान्तिक युक्तियों का प्रकाशन करते हुए महाराजश्री ने श्रावक के लिए प्रयोग किये जाने वाले संघपति शब्द का खण्डन किया। महाराज की इस युक्ति-प्रत्युक्तियों के सामने तिलकप्रभसूरि निरुत्तर हो गए। उनको चुप हुआ देख कर सुख-वार्ता पूछने के बहाने महाराज ने फिर बोल-चाल शुरू की-“साम्प्रंत यूयमत्रैव स्थाष्णवः अर्थात् अब आप क्या यहाँ ही ठहरेंगे?"
तिलकप्रभाचार्य ने हँसते हुए कहा-"अहो आचार्य अत्रैव" इस पद को कहते हुए आपने वाक्य-शुद्धि नाम के अध्ययन की निपुणता दर्शा दी। कारण वहाँ कहा है कि "तहैव सावजणुमोइणो गिरा, ओहारिणी जा उ परोवघायणी" अर्थात् सावध का अनुमोदन करने वाली तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली, निश्चयात्मक वाणी साधु को बोलने योग्य नहीं है। इत्यादि ग्रंथ-वाक्यों से जाना जाता है कि मुनि एकान्त निश्चय रूप भाषा न बोले। आप शास्त्राज्ञा के विरुद्ध "यहाँ ही ठहरोगे क्या?" ऐसा निश्चयात्मक वचन बोलते हैं।
सरल प्रकृति वाले पूज्यश्री बोले-आपने बहुत अच्छी बात सुझाई। कारण कि निश्चयात्मक वचन यदि व्यर्थ चला जाय तो साधु पर मिथ्या-भाषण का दोष आता है और ऐसा होने से व्रत भंग होता है। इसलिए साधु को एकान्त वचन बोलना कल्पता नहीं है। परन्तु आचार्य जी! आपने हमारा अभिप्राय नहीं जाना, इसलिये अब हम न्यायशास्त्र की रीति से अपना अभिप्राय प्रकाशित करेंगे। तर्कशास्त्र पढ़ने का यही फल है कि अभिमान छोड़कर अपना जैसा-तैसा जो भी वाक्य हो उसका जैसे हो सके वैसे समर्थन किया जाय। और "काकतालीय न्याय" से गंगा-जमुना के प्रवाहों की तरह आज अपनी मुलाकात भाग्यवश हो गई है। इसलिए अभिनिवेश (आग्रह) को छोड़कर तर्क रीति से इष्ट गोष्ठी की जाय तो अपने समागम की सफलता है।
तिलकप्रभाचार्य ने कहा-हाँ, आपके कथन को मैं अक्षरशः मानता हूँ।
पूज्यश्री-आचार्य! हम पूछते हैं कि साधु निश्चयात्मक वचन बिल्कुल बोले ही नहीं या कभी बोल भी सकता है। यदि कभी किसी प्रसंग में साधु को एकान्त वाणी बोलनी तो कब और कौन सी बोलनी चाहिए? “निश्चयात्मक वचन कभी भी नहीं बोलना चाहिए।" इस प्रथम पक्ष को यदि लें तो आपके निज वचन का खण्डन होता है, और
अइयम्मि य कालम्मि य पच्चुप्पन्नमणागए।
निस्संकिय भवे जंतु एवमेयं तु निद्दिसे ॥ [भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल में जो संशय-रहित हो उसी बात में "यह ऐसे ही है" ऐसा निश्चयात्मक भाषा साधु को बोलनी उचित है।]
इस सिद्धान्त-वाक्य के साथ विरोध पड़ता है। "कभी-कभी साधु निश्चय-भाषा बोल सकता है।" यदि इस दूसरे पक्ष को ग्रहण किया जाय तो फिर हमको कोई उपालंभ नहीं मिल सकता। क्योंकि हमने आपके इस अभिप्राय के अनुसार ही निश्चयात्मक भाषा का उच्चारण किया है और
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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