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1. व्याख्या-ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च "यत्र" अनायतने भवत्युपघातस्तद्वर्जयेदवद्यभीरुः साधुः। किं विशिष्टः अनायतनं वर्जयतीति अनायतनवर्जकः स एवं विधः क्षिप्रमनायतनमुघात इति मत्वा वर्जयेदिति ॥ ७७८ ॥ इदानीं विशेषतो अनायतनं प्रदर्शयन्नाह2. व्याख्या-सुगमा, नवरं-मूलगुणाः प्राणातिपातादयस्तान्प्रतिसेवन्त इति मूलगुणप्रतिसेविनस्ते यत्र निवसन्ति तदनायतनमिति ॥ ७७९ ॥ 3. व्याख्या-सुगमा, नवरं उत्तरगुणाः "पिण्डम्स जा विसोही" इत्यादि तत्प्रतिसेविनो ये॥ ७८० ॥ 4. व्याख्या-सुगमा, नवरं-लिंगवेषमात्रेण प्रतिच्छन्ना बाह्यतोऽभ्यरतः पुनर्मूलगुणप्रतिसेविन उत्तरगुणप्रतिसेविनश्च, ते यत्र तदनायतनमिति। उक्तं लोकोत्तरभावानायतनं, तत्प्रतिपादनाच्चोक्तमनायतनस्वरूपं ॥ ७८१ ।। इदानीमायतनप्रतिपादनायाह5. व्याख्या-आयतनयपि द्विविधं-द्रव्यविषये भावविषये च भवति। तत्र द्रव्ये जिनगृहादि, भावे भवति त्रिविधंज्ञानदर्शनचारित्ररूपमायतनमिति ।। ७८२ ॥
जत्थेत्यादि सुगमा।
[जहाँ पर रहने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का व्याघात होता हो, उसे अनायतन कहते हैं अतः अनायतन को वर्जित करने वाला पापभीरु साधु उस स्थान को बहुत जल्दी छोड़ दे।
जहाँ पर भिन्न चित्त वाले, अनार्य मूल गुणों के प्रतिसेवी यानि चरणसित्तरी रूप मूल गुणों में दोष लगाने वाले अनेक साधर्मी (वेष से समानता वाले साधु) रहते हों, उसे अनायतन जानो।
जहाँ भिन्न-भिन्न चित्त वाले पिण्डविशुद्धयादि करणसितरी रूप उत्तर गुणों के दोष सेवन करने वाले साधर्मी रहते हैं, उसे भी अनायतन समझो।
जहाँ पर भिन्न चित्त वाले, अनाचारी केवल साधु के चिह्न रजोहरणादि और वेश को धारण करने वाले बहुत से समान धर्मी रहते हैं, उसे अनायतन समझना चाहिए।
द्रव्यायतन और भावायतन भेद से आयतन भी दो प्रकार का होता है। द्रव्यायतन में जिन गृह (मन्दिर) आदि की गणना है और भावायतन मूलगुण व उत्तरगुण के विषय में माना गया है।
जहाँ भिन्न चित्त वाले बहुश्रुत और चारित्राचार सम्पन्न बहुत से सहधर्मी रहते हों उसे आयतन कहते हैं, इसी का नाम भावायतन भी है। ___अच्छे सदाचार सम्पन्न मनुष्यों का संसर्ग शीलरहित मनुष्यों को भी शीलवान बना देता है। जैसे स्वर्णाचल मेरु नाम के पहाड़ में उगा हुआ घास भी सुवर्ण बन जाता है।] ।
पूज्यश्री द्वारा बताई हुई इन गाथाओं की टीका को प्रद्युम्नाचार्य बाँचने लगे और आचार्य महाराज अस्खलित वाणी से इनकी हाथों-हाथ व्याख्या करने लगे। इसके बाद अपने मत की स्थापना के लिये जिसकी बुद्धि में कपट भरा हुआ है ऐसे प्रद्युम्नाचार्य ने सबकी आँखों में धूल झोंकते हुए उस
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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