________________
इस फटकार को सुन कर प्रद्युम्नाचार्य आकुल व्याकुल हो गया और बोला - जैसे सारण - वारण इत्यादि शब्दों का प्रयोग है वैसे ही सारा शब्द का प्रयोग हमने किया है।
पूज्य श्री मजाक से हँस कर बोले- आचार्य जी ! आपने वर्तमान कालवर्ती शास्त्रों की जानकारी का बड़ा श्रेष्ठ परिचय दिया है । धन्य है आप और धन्य है आपका शास्त्र ज्ञान ।
प्रद्युम्नाचार्य अपनी कमजोरी का अनुभव करके कुछ-कुछ खिन्न होकर बोला- सिद्धान्त-ग्रन्थों का विचार प्रारंभ करके बीच में ही यह शब्दापशब्दों की विचारणा क्यों शुरु कर दी। आयतनअनायतन विषयक निर्णय करने के लिए प्रस्तुत सिद्धान्त ग्रंथों की वाचना क्यों नहीं करते ।
पूज्यश्री ने कहा- हाँ, ऐसा करिये।
उसी समय प्रद्युम्नाचार्य ने स्थापनिका (ठवणी - सांपड़ा) रख दी और उसके ऊपर ओघनियुक्तिसूत्रवृति पुस्तक के सब पानों-पत्रों से भरी हुई कपलिका (वस्ता) रख दी।
पूज्यश्री ने कहा- ग्रन्थों को पढ़ कर सुनायेगा कौन? कपटाशय से प्रद्युम्नाचार्य ने कहा- मैं पढ़कर सुनाऊँगा ।
सरल हृदय वाले पूज्यश्री ने विचारा - " क्या क्षोभवश इसकी बुद्धि विचलित हो गई, जो यह हमारे सामने ग्रन्थों को वाँच - वाँच सुनाने को स्वीकार करता हुआ अपने आपकी लघुता को भी ध्यान में नहीं लाता । खैर, इसकी इच्छा।" ऐसा विचार के आचार्यश्री ने कहा- " भले, ऐसा करो। " तत्पश्चात् प्रद्युम्नाचार्य निम्नलिखित गाथाओं को वाँचने लगे
नाणस्स दंसणस्स य, चरणस्सय तत्थ होइ उवघाओ ।
वज्जिज्ज वज्जभीरू, अणाययणवज्जओ खिप्पं ॥ ७७८ ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । मूलगुणप्परिसेवी, अणाययणं तं वियाणाहि ॥ ७७९ ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । उत्तरगुणपडिसेवी, अणाययणं तं वियाणाहि ॥ ७८० ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया । लिंगवेसपडिच्छन्ना, अणाययणं तं वियाणाहि ॥ ७८१ ॥ आययणं पि य दुविहं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । दव्वम्मि जिणहराई, भावम्मि होइ तिविहं तु ॥ ७८२ ॥ जत्थ साहम्मिया बहवे, सीलमंता बहुस्सुया । चरित्तायारसंपन्ना आययणं तं वियाणाहि ॥ ७८३ ॥ सुंदरजणसंसग्गी, सीलदरिद्दं विकुणइ सीलड्डुं । जह मेरुगिरीजायं, तणं पि कणयत्तणमुवेइ ॥ ७८४ ॥
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
(१०५)
www.jainelibrary.org