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की शैली, युक्ति व प्रमाण देखने की जिन्हें इच्छा हो वे सज्जन प्रद्युम्नाचार्य कृत "वादस्थल' नामक ग्रंथ को देखें। इसी तरह जिनको श्री जिनपतिसूरि के अगाध पाण्डित्य का रसास्वादन लेना हो वे महानुभाव आचार्यश्री की रची हुई "वादस्थल'१ पुस्तक का अवलोकन करें। उससे विदित होगा कि महाराज ने किस प्रकार प्रद्युम्नाचार्य के वचनों का निराकरण करके सब लोगों के सामने खरतरगच्छ के मन्तव्यों की पुष्टि की है। इन दोनों ग्रन्थों के देखने से विद्वान पाठकों को अपूर्व आनन्द प्राप्त होगा। शास्त्रार्थ के तमाम विषय को यहाँ पर हमने इसलिए नहीं लिखा कि एक तो इतना सब विषय लिखने से पुस्तक का आकार-प्रकार बहुत बढ़ जायगा। दूसरे यह कि श्रावकों के आग्रह से ये शास्त्रार्थ सम्बन्धी कुछ परिमित बातें लिखी जाती हैं। अतः जो बातें श्रावकों के लिए उपयोगी भी सिद्ध हों वे ही लिखनी चाहिए और यदि वादस्थल लिखित सभी बातें लिखी जाती तो हम समझते हैं कि उस जटिल एवं कठिन विषय का सारांश साधारण पाठकों के समझ में आना ही कठिन था। फिर भी स्थान खाली न रहने के भाव से कुछ थोड़ी सी बातें लिखते हैं।
प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-जिस देवगृह (जिनमन्दिर) आदि में साक्षात् साधु निवास करते हैं, वह आपके कथनानुसार अनायतन ही सही, परन्तु बाहर रहते हुए साधु लोग जिस देवगृह की सारसंभाल करते हैं, उसे आप क्या कहेंगे।
पूज्यश्री उनका कथन सुन कर खूब हँसे और बोले-आचार्य! आपने-अपने वक्तव्य में "सारा" शब्द का प्रयोग किया है। इस शब्द का संस्कृत भाषा में प्रयोग करते हुये आपने अपना वर्तमानकालवर्ती शास्त्रज्ञान का परिचय अच्छी तरह दे दिया।
प्रद्युम्नाचार्य-क्या सारा शब्द नहीं है। पूज्यश्री-हाँ, बिल्कुल नहीं है।
प्रद्युम्नाचार्य-सब लोगों में प्रसिद्ध 'सारा' शब्द को आप केवल अपने कथन मात्र से ही अपलापित नहीं कर सकते।
पूज्यश्री-लोगों से आप का मतलब हल चलाने वाले, गोपालन करने वाले लोगों से है अथवा व्याकरणादि विद्याओं में पारंगत पण्डितगणों से? यदि आप कहें कि मेरा अभिप्राय हलवाहकादि से है, तो कहना पड़ेगा कि संस्कृत भाषा के बीच में हलवाहकादि की भाषा बोलते हुए आप पण्डितों की सभा में अपने आप का गौरव घटाते हैं और यदि आप कहें कि "सारा" शब्द के उच्चारण से मैं पण्डितों का अनुकरण कर रहा हूँ, तो आप कृपया इसकी पुष्टि-समर्थन के लिए किसी पण्डित को साक्षी रूप से उपस्थित करिये या किसी पण्डित ने किसी पुस्तक में "सारा" शब्द का प्रयोग किया हो तो हमें दिखलाइये।
१. यहाँ दोनों ही कृतियाँ "वादस्थल" नाम से लिखी हैं, परन्तु जहाँ तक मेरा ख्याल है, चाहे जिनपतिसूरि जी
की हो या प्रद्युम्नाचार्य की हो, दो में से एक की कृति "वादस्थानक" नाम की है।
(१०४) Jain Education International 2010_04
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