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पूज्यश्री ने कहा-"हाँ, इसमें क्या बुरा है? परन्तु यह बात आप प्रद्युम्नाचार्य से भी स्वीकार करवा लें।"
श्रावकों ने प्रद्युम्नाचार्य से प्रार्थना की-भगवन् ! लोगों में सुनते हैं कि देवता लोग परस्पर में सदैव संस्कृत भाषा ही बोलते हैं। परन्तु देवदर्शन हमें दुर्लभ है और संस्कृत सुनने की हम लोगों की बड़ी इच्छा है। इसलिए आप लोग हमारे ऊपर परम अनुग्रह करके संस्कृत भाषा बोलेंगे तो हमारी देव-दर्शनेच्छा पूर्ण हो जायगी। कारण कि आप दोनों आचार्यों ने अपनी सुन्दराकृति से देवताओं को भी मात कर दिया है।
हँस कर प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-श्रावक लोगों! क्या आप लोग संस्कृत भाषा समझ जायेंगे?
वे बोले-हाँ, महाराज! आपका कहना युक्त ही है। मारवाड़ में पैदा होने वाले इतना भी नहीं जानते कि बेर का मुख ऊपर है, नीचे है या बांई ओर है। महाराज! कहाँ पूज्यश्री, कहाँ आप और कहाँ हम लोग। फिर भी आज यह आप लोगों का शुभ संयोग हमारे महाभाग्य से हो ही गया है। आप लोगों के शुभ संभाषण से यदि हम लोगों के कानों को सुख मिले तो यह बड़े सन्तोष की बात होगी। इस तरह के दुर्लभ समागम के होने की आगे बहुत कम संभावना है।
इस प्रकार श्रावकों का अत्यधिक अनुरोध देखकर प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-बहुत अच्छा, आप लोग कहते हैं तो वैसा ही करेंगे।
प्रद्युम्नाचार्य अपने साथ एक खड़िया का टुकड़ा व पट्टी आदि लिखने का साधन ले आये थे। उसे देख कर पूज्यश्री ने कहा-यह खड़िया का टुकड़ा क्यों लाये हैं?
प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-संस्कृत बोलते हुए यदि कदाचित् कोई अपशब्द (अशुद्ध प्रयोग) बोलने में आ जाय तो उसको सिद्ध करने के वास्ते।
आचार्यश्री ने कहा-मुख जबानी शब्द-सिद्धि करने का सामर्थ्य जिसमें न हो उसको संस्कृत भाषा में बोलने का अधिकार ही क्या है? वास्ते इसे अलग रखिये। दूसरे यह पट्टी किस वास्ते लायी गई है?
प्रद्युम्नाचार्य-बोलने में आ जाने वाले अपशब्दों को लिख लेने के वास्ते।
पूज्यश्री-जो मनुष्य बोले जाते अपशब्दों को अपने हृदय में धारण कर रख नहीं सकता है वह वाद-विवाद में विजय प्राप्त करने की इच्छा कैसे रख सकता है? अतः आप इस पट्टी को भी दूर हटा दीजिये।
इस प्रकार आक्षेपपूर्वक आचार्यश्री के कहने पर प्रद्युम्नाचार्य ने वह खड़िया और पट्टी दोनों ही अलग रख दिये। बाद में नैयायिक पद्धति से "अनायतन' विषय को लेकर दोनों आचार्य संस्कृत भाषा में खंडन-मंडनात्मक भाषण करने लगे। उस समय जैन शास्त्रों में वर्णित भरतेश्वर और बाहुबलि के युद्ध की तरह उन दोनों आचार्यों का वाग्युद्ध देखने योग्य था। प्रद्युम्नाचार्य के तात्कालिक शास्त्रार्थ
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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