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आदर्श को अपनाया था। परन्तु स्थूल बुद्धि के श्रावक लोग पूज्यश्री के इस अभिप्राय को न जानते हुए कहने लगे-"महाराज! प्रद्युम्नाचार्य ने अपने गाल फुला-फुला कर बहुत कुछ कहा और उसके विरुद्ध आप कुछ भी नहीं बोले, यह कहाँ तक उचित है? जरा आप ही सोचें।"
इसके उत्तर में महाराज कहने लगे-श्रावक लोगों शान्त रहो, धैर्य धारण करो, उतावले मत बनो। कहावत है-एक ही सपने में रात खत्म नहीं हुआ करती।
इधर ये बातें हो रही थी, उधर प्रद्युम्नाचार्य की तरफ का हाल सुनिये-प्रद्युम्नाचार्य ने शास्त्रार्थ का रण-निमंत्रण स्वीकार तो कर लिया, परन्तु अब मान-हानि का भय आ खड़ा हुआ। अतः प्रद्युम्नाचार्य ने अपने पक्ष के अनेक आचार्य पंडितों को बुलाया और उनके साथ बैठ कर अत्यन्त प्रकाशमान दीपकों के प्रकाश में रात्रि भर "ओघनियुक्ति" की मूल सहवृत्ति पुस्तकों को वांची, देखी, परन्तु घोर परिश्रम करते हुए भी "अनायतन के स्वरूप" को बतलाने वाला स्थल प्रकरण उन्हें नहीं मिला। बड़ी निराशा हुई। आखिर उपायान्तर न देख कर पूछने के लिए पूज्यश्री के पास अपने आदमी को भेजा। पूज्यश्री ने उनके प्रश्न के अनुसार स्थल बतला दिया। बताये हुए उद्देश को देखते हुए अनायतन संबंधी प्रसंग मिल गया। उस स्थल में से अनायतन प्रतिपादक गाथाओं के टीका-पाठ को अन्यान्य टीका-पाठ के साथ जोड़ के खूब चिंतन किया यानि अपनी अभीष्ट सिद्धि हो वैसी युक्ति प्रयुक्तियों का विचार किया। तत्पश्चात् प्रात:काल होते ही हजारों नागरिक लोगों के साथ एवं अपने भक्त अभयड नामक दण्डनायक (नगर कोतवाल) के हाथ से हाथ मिलाये हुए और स्थानान्तरों से बुलाये हुए अनेक आचार्यों से परिवृत्त हुए प्रद्युम्नाचार्य पूज्यश्री जिनपतिसूरि जी म० से अलंकृत मकान पर आ पहुँचे। आने के साथ अपने क्षुद्र स्वभाव के कारण वन्दनादि शिष्ट व्यवहार किये बिना ही नीचे के भूमितल पर सभी आचार्य लोग जल्दी से बैठ गये। आ० श्री जिनपतिसूरि जी भी इनके आगमन की सूचना मिलने पर अपने परिवार के साथ नीचे आये। देखा तो कोई योग्य जगह बैठने को है नहीं, अतः महाराज की वैयावच्च (सेवा) करने वाले जिनागरगणि ने उन लोगों की कपट क्रिया जान कर कहा- भगवन् !आपका आसन कहाँ बिछाऊँ? तीन तरफ का हिस्सा इन्होंने रोक लिया है।
पूज्यश्री ने कहा-और तो कोई बैठने योग्य जगह नहीं, अत: यहीं बिछा दो। शिष्य ने कहा-महाराज! यहाँ बैठने से योगिनी सन्मुख पड़ेगी।
पूज्यश्री ने कहा-भले हो, गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज सब भला करेंगे, तू यहीं आसन बिछा! ऐसा कह कर महाराज आसन बिछवा कर पूज्य श्री उसी स्थान पर विराज गये।
उस समय भरी में सेठ क्षेमंधर और वाहित्र गोत्रीय उद्धरण आदि ने खड़े हो हाथ जोड़ कर आचार्य जी से विनती की कि-"प्रभो! यह बड़े-बड़े आचार्यों का सम्मेलन आज अनेक दिनों में हमें देखने को मिला है, इसलिए यदि आप लोग संस्कृत भाषा में बोलें तो हमारे कानों को बड़ा सुहावना लगेगा।"
(१०२) Jain Education International 2010_04
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
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