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४०. महाराजश्री नरपालपुर से लौटकर फिर रुद्रपल्ली चले आये। वहाँ पर छोटी अवस्था वाले जिनचन्द्रसूरि जी किसी दिन चैत्यवासी मुनियों के मठ के पास होकर अपने शिष्यों के साथ बहिर्भूमिका के लिए जा रहे थे। मठाधीश श्री पद्मचन्द्राचार्य ने उनको देखकर मात्सर्यवश पूछा-"कहिए आचार्य जी! आप मजे में हैं?" पूज्यश्री ने कहा-"देव और गुरुओं की कृपा से हम आनन्द में हैं।" पद्माचन्द्राचार्य फिर बोले-"आप आज कल किन-किन शास्त्रों का अभ्यास कर रहे हैं?" महाराज के साथ वाले मुनि ने कहा-"पूज्यश्री आजकल "न्याय-कन्दली" ग्रन्थ का चिन्तन करते हैं।" पद्मचन्द्राचार्य-"तमोवाद (अंधकार प्रकरण) का चिन्तन किया है।" पूज्यश्री-"हाँ, तमोवाद प्रकरण देखा है।" पद्मचन्द्राचार्य-"अच्छी तरह से मनन कर लिया?" पूज्यश्री-"हाँ, कर लिया।" पद्मचन्द्राचार्य-"अंधकार रूपी है या अरूपी? अंधकार का कैसा रूप है?" पूज्य श्री-“अंधकार का रूप कैसा ही हो। इस समय इसके विवेचन की आवश्यकता नहीं है। राज सभा में प्रधान-प्रधान सभ्यों के समक्ष शास्त्रार्थ की व्यवस्था की जाये। तदनन्तर वादी-प्रतिवादी अपने-अपने युक्ति प्रमाणों के द्वारा इस विषय का मर्मोद्घाटन करें। यह निश्चित है कि स्वपक्ष स्थापन करने पर भी वस्तु अपना स्वरूप नहीं छोड़ती।" पद्मचन्द्राचार्य-"पक्ष स्थापना मात्र से वस्तु अपना स्वरूप छोड़े या न छोड़े, परन्तु तीर्थंकरों ने तम को द्रव्य कहा है। यह सर्वसम्मत है।" पूज्यश्री-“अन्धकार को द्रव्य मानने में कौन इन्कार करता है? परन्तु आचार्य जी प्रतिवादी को जीतना ऐसे-वैसे नहीं हो सकता।"
इस प्रकार पूज्यश्री जिनचन्द्रसूरि जी वार्तालाप के समय ज्यों-ज्यों शिष्टता और विनयदर्शित किया वैसे-वैसे पद्मचन्द्राचार्य दर्प सीमा को पार कर गये। कोप के आवेग से उनकी आँखें लाल हो गईं और कहने लगे-"मैं जब प्रमाण रीति से "अन्धकार द्रव्य है" इसे स्थापित करूँगा, तब क्या तुम मेरे सामने ठहरने की योग्यता रखते हो?" पूज्यश्री-"किसकी योग्यता है, किसकी नहीं" इसका पता राज सभा में लगेगा। (यहाँ पर व्यर्थ ही पागल की तरह प्रलाप करना मुझे नहीं आता)। पशुओं की जंगल ही रणभूमि है। आप मुझे कम उम्र का समझ कर अपनी शक्ति को अधिक न बघारिए। मालूम है छोटे शरीर वाले सिंह की दहाड़ सुनकर पर्वताकृति गजराज मारे भय के भाग जाते हैं।"
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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