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________________ इन दोनों आचार्यों का यह विवाद सुनकर कौतुक देखने के लिए वहाँ पर बहुत से नागरिक लोग इकट्ठे हो गये। दोनों पक्ष के श्रावक अपने-अपने आचार्य का पक्ष लेकर एक-दूसरे को अहंकार दिखाने लगे। अधिक क्या कहें, यह मामला राज्याधिकारियों के समक्ष उपस्थिति किया गया। दोनों ओर से नियम कायदे निश्चित कर शास्त्रार्थ की व्यवस्था निर्धारित की गई। जिनचन्द्रसूरि जी जब दृढ़ता के साथ शास्त्रार्थ करने लगे, तो शास्त्रार्थ के प्रारम्भ में ही पद्मचन्द्राचार्य फिसल गये। उनका गर्व शास्त्रार्थ की प्रथमावस्था में ही भग्न हो गया। राजकीय अधिकारियों ने बड़ी सावधानी से वस्तु स्थिति को समझ कर उपस्थित दर्शकों के सामने ही राज्य की ओर से श्री जिनचन्द्रसूरि जी को विजय पत्र दिया। चारों ओर से सूरीश्वर का जय-घोष होने लगा। जिन शासन की लोगों में बड़ी प्रभावना हुई। इस आशातीत विजय के उपलक्ष्य में महाराज को बधाई देने के लिए अत्यन्त प्रसन्न हुए श्रावकों ने उत्सव मनाया। तत्पश्चात् पूज्यश्री के भक्त श्रावक "जयतिहट्ट" इस नाम से प्रसिद्ध हुये और पद्मचन्द्राचार्य के श्रावक लोगों के आक्षेप तथा उपहास के पात्र बनकर "तर्कहट्ट" इस नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार यशस्वी आचार्य जिनचन्द्रसूरि जी कई दिनों तक वहाँ रहे। बाद में सिद्धान्तों में बतायी हुई विधि के अनुसार एक सार्थवाह के साथ वहाँ से विहार किया। ४१. मार्ग में चोर सिंदानक ग्राम के पास सारे ही संघ ने पड़ाव डाला। वहाँ पर म्लेच्छों ने भय से संघ को आकुल-व्याकुल देखकर पूज्यश्री ने पूछा-"आप क्यों व्याकुल हो रहे हैं?" संघ वालों ने कहा-"भगवन् ! आप देखिए म्लेच्छों की सेना आ रही है। इधर इस दिशा में धूल का बवंडर उठ रहा है और कान लगाकर ध्यान से सुनिये, फौज का होहल्ला सुनाई दे रहा है।" महाराज ने सावधान होकर सबसे कहा-"संघ स्थित भाइयों! धैर्य रखो, अपने ऊंट, बैल आदि चतुपष्दों को एकत्रित कर लो। प्रभु श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज सब का भला करेंगे।" इसके बाद पूज्य श्री ने मंत्र ध्यानपूर्वक अपने दण्ड से संघ के पड़ाव के चारों और कोटाकार रेखा खींच दी। संघ के तमाम आदमी उस सीमा में घुसकर बैठ गये। उन लोगों ने घोड़ों पर चढ़े हुये, पड़ाव के पास होकर जाते हुये हजारों म्लेच्छों को देखा परन्तु म्लेच्छों ने संघ को नहीं देखा, केवल कोट को देखते हुये दूर चले गये। संघ के समस्त लोग निर्भय होकर आगे चले। दिल्ली में समाचार पहुँचा कि पिछले ग्राम से संघ के साथ पूज्य आचार्यश्री आ रहे हैं। खबर पाते ही दिल्ली के मुख्य-मुख्य श्रावक वन्दना करने के लिए बड़े समारोह के साथ सन्मुख चले। ठाकुर नोहट, सेठ पाल्हण, सेठ कुलचन्द्र और सेठ महीचंद आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। नगर के मुखिया धनी, मानी, सेठ-साहूकार सुन्दर वस्त्राभूषण पहन कर अपने-अपने परिवार को साथ लेकर हाथी, घोड़ा, पालकी आदि श्रेष्ठ सवारियों पर चढ़ कर जब दिल्ली से बाहर जा रहे थे, तब अपने महल की छत पर बैठे हुए दिल्ली नरेश महाराजा मदनपाल (अनङ्गपाल) ने उन्हें जाते देखकर विस्मय के साथ मंत्रियों से पूछा-"आज ये नगर निवासी बाहर क्यों जा रहे हैं?" मंत्रियों ने कहा-"राजन् ! अत्यन्त सुन्दराकृति, अनेक शक्ति सम्पन्न इनके गुरु आये हैं। ये लोग भक्तिवश उनके सन्मुख जा रहे हैं।'' राजा लोग मनमौजी होते हैं, मन्त्रियों का कथन सुनकर राजाधिराज के मन में (५६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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