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________________ यह अभिलाषा हुई है कि ऐसे प्रभावशाली गुरु का दर्शन हम भी करें और उसी समय अश्वशालाध्यक्ष को आदेश दिया-"महासाधनिक! हमारे मुख्य घोड़े को सजाओ तथा नगर में उद्घोषणा करवा दो कि सब राजपूत घुड़सवार यहाँ आवें और लोक सजधज के साथ हमारे साथ चलें।" भूपति का आदेश पाते ही हजारों क्षत्रिय वीर अश्वारुढ़ होकर नरपति के साथ हो लिये। श्रावक लोगों के पहुंचने के पहले ही महाराजा मदनपाल पूज्य गुरुदेव के पास पहुँच गये। वहाँ पर पूज्यश्री के साथ वाले संघ के श्रेष्ठिगणों ने प्रचुर भेंट (नजराना) देकर राजा का सत्कार किया। पूज्य गुरुदेव ने भूपति जानकर कर्णप्रिय मधुर वाणी से राजा को धर्मोपदेश दिया। देशना सुनकर राजा ने कहा-"आचार्यवर! आपका शुभागमन किस स्थान से हुआ है?" पूज्यश्री ने कहा-"हम इस समय रुद्रपल्ली से आ रहे हैं।" राजा ने कहा-"आपश्री अपने चरण-विन्यास से मेरी नगरी (दिल्ली) को पवित्र कीजिए।" राजा के यह वाक्य सुनकर आचार्य महाराज मन ही मन सोचने लगे-"पूज्य गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज ने दिल्ली-प्रवेश का निषेध किया था। राजा चलने के लिए आग्रह कर रहा है। ऐसी स्थिति में क्या करें?" इस प्रकार आचार्यश्री दुविधा में पड़कर कुछ भी उत्तर नहीं दे सके। आचार्यश्री की मौन मुद्रा देखकर राजा बोले-"भगवन् ! आप चुप क्यों हो गये? क्या मेरे नगर में आपका कोई प्रतिपक्षी है? क्या आपके मन में यह आशंका है कि मेरे परिवार से उपयोगी आहार-पानी नहीं मिलेगा? अथवा और कोई कारण है, जिससे मार्ग में आये हुए मेरे नगर को छोड़कर आप अन्यत्र जा रहे हैं?" यह सुनकर आचार्यश्री ने कहा-"राजन्! आपका नगर धर्म-प्रधान क्षेत्र है।" यह सुनते ही बीच में महाराजा ने कहा-"तो फिर उठिये, दिल्ली पधारिये। आप विश्वास रखिये मेरी नगरी में आपकी तरफ कोई अंगुली उठाकर भी नहीं देख सकेगा।" इस प्रकार दिल्लीश्वर महाराजा मदनपाल के बारम्बार अनुरोध से जिनचन्द्रसूरि जी दिल्ली के प्रति विहार करने को प्रस्तुत हो गये। यद्यपि स्वर्गीय आचार्य श्रीजिनदत्तसूरि जी के दिल्ली गमन निषेधात्मक अन्तिम उपदेश के त्यागने से उनके हृदय में मानसिक पीड़ा अवश्य थी, परन्तु भावी के वश होकर आचार्यश्री राजा के प्रेम भक्ति के प्रभाव में आकर दिल्ली चल दिये, अस्तु। जैनाचार्य के शुभागमन के उपलक्ष्य में सारा नगर सजाया गया। चौबीस प्रकार के बाजे बजने लगे। भाट-चारण लोग विरुदावली पढ़ने लगे। गगनचुम्बी विशाल भवनों पर ध्वजा पताकाएँ फहराने लगीं। वसंत आदि मांगलिक गाने गाये जा रहे थे। नर्तकियाँ नाच रही थीं। महाराज के मस्तक पर छत्र विराजमान हो रहा था। लाखों आदमी जुलूस के साथ चल रहे थे। स्वयं दिल्लीपति महाराजा मदनपाल अपनी बाँह पकड़ाये हुये महाराजश्री के आगे चल रहे थे। वन्दरवार और तोरणों से सभी गृह-द्वार सजाये गये थे। "चौबीसी" गाती हुई हजारों रमणियों का झुण्ड छतों पर से आचार्यश्री के दर्शन करके अपने को धन्य मान रही थीं। ऐसे अभूतपूर्व समारोह के साथ सूरीश्वर ने भारत की परम्परागत प्रधान राजधानी दिल्ली में प्रवेश किया। महाराज के विराजने से नगर-निवासियों में राजा से रंक तक नवजीवन का संचार हो गया। उपदेशामृत की झड़ी से अनेक लोगों की सन्तप्त आत्मा को शान्ति पहुँची। इस प्रकार वहाँ रहते हुये कई दिन बीत गये। ४२. एक दिन दयालु स्वभाव वाले महाराज ने अनन्य भक्त श्रेष्ठि कुलचन्द्र को धनाभाव के संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (५७) _Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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