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________________ कारण अर्थ- दुर्बल देखकर केसर, कस्तूरी, गोरोचन आदि सुगन्धित पदार्थों की स्याही से मंत्राक्षर लिखकर एक " यन्त्रपट " दिया और कहा - " कुलचन्द्र ! इस यन्त्रपट को अपनी मुट्ठी भर अष्ट गंध चूर्ण से प्रतिदिन पूजन करना । यन्त्र पर चढ़ा हुआ यह चूर्ण पारे आदि के संयोग से सुवर्ण बन जाएगा।" पूज्यश्री की बताई हुई विधि के अनुसार यंत्र की पूजा करने से श्रेष्ठि कुलचन्द्र कालान्तर में करोड़पति हो गया । ४३. नवरात्र की नवमी के दिन पूज्यश्री नगर के उत्तर द्वार होकर बहिर्भूमिका के लिये जा रहे थे। मार्ग में मांस के लिए लड़ती हुई दो मिथ्या दृष्टि वाली देवियों को देखा । करुणार्द्र हृदय सूरिजी ने उनमें से अधिगाली नामक देवी को प्रतिबोध दिया। उस देवी ने सदुपदेश से शान्त-चित्त होकर पूज्यश्री से निवेदन किया- " भगवन्! आज से मैं मांस-बलि का त्याग करती हूँ, परन्तु कृपा करके मुझे रहने के लिए स्थान बतलाइये, जहाँ पर रहते हुये मैं आपके आदेश का पालन कर सकूँ ।" उसके सन्तोष के लिए पूज्यश्री ने कहा- "देवीजी ! श्री पार्श्वनाथ भगवान् के विधिचैत्य में तुम चले जाओ और वहाँ प्रवेश करते हुए दक्षिण स्तम्भ में रहो।" देवी को इस प्रकार आश्वासन देकर महाराज पौषधशाला में गए। श्रेष्ठि लोहट, कुलचन्द्र, पाल्हण आदि प्रधान श्रावकों से कहा-' -" पार्श्वनाथ मन्दिर में प्रवेश करते दक्षिण स्तम्भ में अधिष्ठायक मूर्ति बनवा दो । वहाँ मैंने एक देवी को स्थान दिया है।" आदेश पाते ही श्रावकों ने सब कार्य सम्पन्न कर दिया। पूज्यश्री ने प्रतिष्ठा करवा दी। अधिष्ठातृ का नाम अतिबल रखा गया । श्रावकों की ओर से उसके लिए अच्छे भोग का प्रबन्ध कर दिया गया। अतिबल ( नामक प्रतिष्ठित देवता) भी श्रावकों के अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति करने में प्रवृत्त हुआ । I वि०सं० १२२३ में श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज चतुर्विध संघ से क्षमा प्रार्थना करके अनशन विधि के साथ द्वितीय भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी के दिन इस संसार को त्याग करके देवलोक को प्रयाण कर गये। ४४. शरीर त्यागते समय महाराज ने अपने पार्श्ववर्ती लोगों से कहा था कि- "नगर से जितनी दूर हमारा दाह संस्कार किया जायेगा, नगर की आबादी उतनी ही दूर तक बढ़ेगी।" इस गुरुवचन को याद करके उपासकगण महाराजश्री के मृत शरीर को अनेक मण्डपिकाओं से मण्डित विमान में रखकर शहर से बहुत अधिक दूर ले गए। वहाँ पर भूमि पर रखे हुए पूज्यश्री के विमान को देखकर तथा जगत्त्रय को आनन्ददायक गुणों का स्मरण करके प्रधानगीतार्थ साधु गुणचन्द्रगणि शोकाश्रु पूर्ण गद्गद्वाणी से महाराज जी की स्तुति करने लगे (५८) चातुर्वर्ण्यमिदं मुदा प्रयतते त्वद्रूपमालोकितुं, मादृक्षाश्च महर्षयस्तव वचः कर्तुं सदैवोद्यताः । शक्रोऽपि स्वयमेव देवसहितो युष्मत्प्रभामीहते, तत्किं श्रीजिनचन्द्रसूरिसुगुरो ! स्वर्गं प्रति प्रस्थितः ॥ १ ॥ Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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