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साहित्यं च निरर्थकं समभवनिर्लक्षणं लक्षणं, मन्त्रैर्मन्त्रपरैरभूयत तथा कैवल्यमेवाश्रितम्। कैवल्याज्जिनचन्द्रसूरिवर! ते स्वर्गाधिरोहे हहा! सिद्धान्तस्तु करिष्यते किमपि यत्तन्नैव जानीमहे ॥ २॥ प्रामाणिकैराधुनिकैर्विधेयः, प्रमाणमार्गः स्फुटमप्रमाणः॥
हहा! महाकष्टमुपस्थितं ते, स्वर्गाधिरोहे जिनचन्द्रसूरे!॥३॥ [हे सुगुरु श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज! चारों वर्गों के लोग सदैव आपका दर्शन करने के लिए नित्य सहर्ष प्रयत्न किया करते थे। तथैव मेरे जैसे साधुगण सर्वदा आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए प्रस्तुत रहा करते थे। फिर भी आप हम निरपराध लोगों को छोड़कर स्वर्ग पधार गये। इसका एकमात्र कारण हमारी समझ में यही आया है कि देवताओं के साथ स्वयं देवराज इंद्र भी बहुत समय से आपके दर्शनों की प्रतीक्षा करता था॥ १॥
आपश्री के स्वर्ग पधारने से साहित्य-शास्त्र निरर्थक हो गया, अर्थात् आप ही उसके पारगामी मर्मज्ञ थे। वैसे ही न्यायशास्त्र लक्षण-शून्य हो गया। आपका आश्रय टूट जाने से निराधार मंत्रशास्त्र के मंत्र परम्पर में मंत्रणा करते हैं कि अब हमें किसका सहारा लेना चाहिए, अर्थात् आप मंत्र शास्त्रों के अद्वितीय ज्ञाता थे। इसी प्रकार ज्योतिष की अवान्तर भेद रमल विद्या ने आपके वियोग में वैराग्यवश मुक्ति का आश्रय लिया है। अब सिद्धान्त शास्त्र क्या करेंगे? इसका हमें ज्ञान नहीं है ॥ २॥
आधुनिक मीमांसकों के लिए मीमांसा शास्त्र का प्रमाण मार्ग अप्रमाण स्वरूप हो गया है, क्योंकि उसका विशेषज्ञ अब इस धराधाम पर नहीं रहा। श्रीजिनचन्द्रसूरि जी! आपके स्वर्गाधिरोहण से सब शास्त्रों में हलचल मच गई है ॥ ३॥]
इस प्रकार गुरु-गुण-गान करते-करते गुणचन्द्र गणि अधीर हो गये। आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। इसी तरह अन्य साधु वर्ग भी गुरु-स्नेह से विह्वल हो परस्पर में पराङ्मुख होकर अश्रुपात करने लगे। उपस्थित श्रावक वर्ग भी वस्त्रांचल से नेत्र ढांक कर हिचकियाँ लेने लगे। क्षणान्तर में गुणचन्द्र गणि स्वयं धैर्य धारण करके इस अप्रिय दृश्य को रोकने के लिए साधुओं को सम्बोधन करके कहने लगे-"पंचमहाव्रतधारी मुनिवरों! आप लोग असंतोष न करें और अपनीअपनी आत्मा को शान्ति दें। पूज्यश्री ने स्वर्ग सिधारते समय मुझे आवश्यक कर्त्तव्य का सब निर्देश कर दिया है। जिस तरह आप लोगों के मनोरथ सिद्ध होंगे वैसा ही किया जायेगा। इसलिए आप लोग मेरे पीछे-पीछे चले आवें।" इस तरह दाह संस्कार स्थान में साधु योग्य क्रियाकलाप को सम्पादित कर सब मुनिजनों के साथ सर्वादरणीय भाण्डागारिक गुणचन्द्र गणि पौषधशाला में आ गये। कुछ दिन दिल्ली में रहने के बाद चतुर्विध संघ के साथ भाण्डागारिक गुणचन्द्र गणि बब्बेरक की तरफ विहार कर गये।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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