SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशेष मणिधारी जिनचन्द्रसूरि :- प्रस्तुत गुर्वावली में जिनपालोपाध्याय ने जिनचन्द्रसूरि के बचपन के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है बल्कि इसके लिये रासलनन्दन शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु पं० बेचरदासजी दोशी ने अपनी लघुकाव्यकृति जिनचन्द्रसूरिकाव्यकुसुमांजलि में इनके बचपन का नाम सूर्यकुमार दिया है । अत्यल्प अवस्था में भी ये न्याय और दर्शन के उद्भट विद्वान् थे । यह बात गुर्वावली में उल्लिखित पद्मचन्द्राचार्य से हुए शास्त्रार्थ से स्पष्ट है । यह उल्लेखनीय है कि तम अर्थात् अन्धकार द्रव्य है या नहीं, इस विषय पर इनका पद्मचन्द्राचार्य से शास्त्रार्थ हुआ था जिसमें इन्हें विजय प्राप्त हुई थी। जैसलमेर ज्ञान भंडार में आचार्य आनन्दवर्धनकृत ध्वन्यालोकलोचन की एक प्रति संरक्षित थी । इस प्रति की लेखन प्रशस्ति निम्नलिखित है १. २. ३. ४. ५. पूर्णं चेदं काव्यालोकलोचनं ... लब्धप्रसिद्धेः श्रीमदाचार्याभिनवगुप्तस्य ॥ छ ॥ समाप्तं चेदं लोचनग्रन्थः ॥............... ध सु? रवौ ॥ श्रीमजिनवल्लभसूरिशिष्यः श्रीमज्जिनदत्तसूरिः प्रवरविधिधर्मसर ... प्रतिवादिकरटिकरटविकटर दपा ... चरणेन्दीवरमधुकरो विज्ञातसकलशास्त्रार्थः.. जिनचन्द्रनाम्नाऽलेखि.. इस पुष्पिका की अंतिम पंक्ति में जिनदत्तसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि ( जिनचन्द्रनाम्नाऽलेखि) का नाम स्पष्टतः लिखा गया है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उन्होंने स्वयं लिखा था या स्वयं के लिए लिखवाया था। इस पुष्पिका में 'संवत्' का अंश नष्ट हो जाने से यह अनुमान करना असंगत न होगा कि जिनचन्द्रसूरि का पदाभिषेक सं० १२११ और स्वर्गवास सं० १२२३ है, अतः यह ग्रन्थ भी सं० १२११ और सं० १२२३ के मध्य में लिखा गया होगा । (६०) पुष्पिका में प्रदत्त 'प्रतिवादिकरटिकरटविकटरद........ विज्ञातसकल-शास्त्रार्थ' विशेषणों से स्पष्ट है कि आचार्य स्वमत और परमत के समस्तशास्त्रों के उद्भट विद्वान् और प्रतिवादियों के लिये पंचानन के समान हैं। जिनपालोपाध्याय प्रणीत 'खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में लिखा है कि आचार्य का रुद्रपल्ली में पद्मचन्द्राचार्य के साथ तम (अन्धकार) द्रव्य है या नहीं ? इस विषय पर शास्त्रार्थ हुआ था और इसमें मणिधारीजी विजयी रहे थे । पूर्वोक्त विशेषणों से इस प्रसङ्ग की प्रासंगिक रूप में पुष्टि होती है । न जिनविजय जी ने भारतीय विद्या, भाग-३ में इसके अन्तिम पत्र की प्रतिलिपि प्रकाशित है । उक्त प्रतिमुनि जिनविजय जी सम्पादन हेतु जैसलमेर से ले आये, परन्तु न तो वे उसे सम्पादित ही कर सके और न ही जैसलमेर ग्रन्थ भंडार को लौटा सके। उनके स्वर्गवास के Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy