SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि : ३९. विक्रम संवत् १२१४ में श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने त्रिभुवनगिरि में सज्जनों के मन को हरने वाले श्री शान्तिनाथ प्रासाद के शिखर पर बड़े ठाठ-बाट के साथ सुवर्णकलश और सुवर्णमय ध्वजदण्ड का आरोपण किया। इसके बाद हेमदेवी गणिनी नाम की आर्या को प्रवर्तिनी पर देकर वि०सं० १२१७ में फाल्गुन शुक्ल दशमी के दिन मथुरा पहुँच कर पूर्णदेव गणि, जिनरथ, वीरभद्र, वीरजय, जगहित, जयशील, जिनभद्र आदि सहित श्री जिनपतिसूरि को दीक्षित किया । श्रा० क्षेमंधर नामक धनीमानी सेठ को उन्होंने प्रतिबोध दिया और उपर्युक्त वर्ष में ही वैशाख शुक्ल दशमी को मरुकोट में भगवान् चन्द्रप्रभस्वामी के विधिचैत्य में सुवर्णकलश और सुवर्णमय ध्वजदण्ड का आरोपण किया। ये कलश व ध्वजदण्ड साधु सेठ गोल्लक ने अपने निज के धन व्यय से तैयार करवाये थे । इस महोत्सव में सेठ क्षेमंधर ने पाँच सौ द्रम्म देकर माला ग्रहण की। वहाँ से महाराज उच्चानगरी में पहुँचे। वहाँ सं० १२९८ में ऋषभदत्त, विनयचन्द्र, विनयशील, गुणवर्द्धन और वर्द्धमानचन्द्र आदि पाँच साधु तथा जगश्री, सरस्वती, गुणश्री- तीन साध्वियाँ दीक्षित कीं। इन महाराज के शासन काल में साधु-साध्वियों की संख्या बढ़ने लगी। तत्पश्चात् सं० १२२१ में ये महाराज सागरपाड़ा पधारे। वहाँ पर श्रा० गणधर द्वारा बनाये गये श्री पार्श्वनाथ विधिचैत्य में देवकुलिका प्रतिष्ठित की। अजमेर पधार कर स्वर्गीय श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज के स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा की । तदनन्तर बब्बेरक ग्राम में जाकर वाचनाचार्य गुणभद्र गणि, अभयचन्द्र, यशचन्द्र, यशोभद्र और देवभद्र इन पाँच शिष्यों को दीक्षा दी और इनके साथ देवभद्र की धर्मपत्नी को भी अधिकारिणी समझकर दीक्षित किया । आशिका नगरी में नागदत्त मुनि को वाचनाचार्य का पद दिया । महावन में श्रे० देवनाग निर्मापित श्री अजितनाथ भगवान् के मन्दिर की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा की । इसी प्रकार इन्द्रपुर में वा० गुणचन्द्र गणि के पिता महलाल श्रावक द्वारा बनवाये हुए सुवर्णमय दण्डकलश, ध्वजा आदि की श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने प्राचीन पार्श्वनाथ भुवन में प्रतिष्ठित कर, अम्बिका शिखर पर भी सुवर्णकलश की स्थापना कर पूज्य श्री रुद्रपल्ली की ओर विहार कर गये । रुद्रपल्ली से आगे नरपालपुर में महाराज गये । 44 वहाँ पर ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान से गर्वित एक ज्योतिषी महाशय से पूज्य श्री की मुलाकात हुई । वाद-प्रतिवाद चलने पर महाराज ने कहा कि - "चर - स्थिर - द्विस्वभाव इन तीन स्वभाव वाले लग्नों में किसी लग्न का प्रभाव दिखाओ ।" ज्योतिषी जी के इन्कार करने पर सूरिजी ने कहा'स्थिर स्वभाव वाले वृष लग्न की स्थिरता का प्रभाव देखिये; वृष लग्न के उन्नीस से तीस अंशों तक के समय में और मृगशीर्ष मुहूर्त में श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर के सामने एक शिला अमावस्या के दिन स्थापित की। यह १७६ वर्षों तक स्थिर रहेगी।" ऐसा कहकर पण्डित को जीत लिया। पण्डित लज्जित होकर अपने स्थान को गया । सुनते हैं उस शिला के ऊपर की भींत अब भी उक्त स्थान में ज्योंकि त्यों वर्तमान है । (५४) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy