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कीर्तिचन्द्र, श्रीप्रभ, सिद्धसेन, रामदेव और चन्द्रप्रभ इन मुनियों को तथा संयमश्री, शान्तमति, रत्नमति, इन साध्वियों को दीक्षा दी। सं० १२४६ में श्रीपतन में श्री महावीर प्रतिमा की स्थापना की। सं० १२४७ (?) १२४८ में लवणखेड़ा में रहकर मुनि जिनहित को उपाध्याय पद दिया। सं० १२४९ में पुनः पुष्करिणी आकर मलयचन्द्र को दीक्षा दी। सं० १२५० में विक्रमपुर में आकर साधु पद्मप्रभ को आचार्य पद दिया और सर्वदेवसूरि नाम से उनका नाम परिवर्तन किया। सं० १२५१ में वहाँ से माण्डव्यपुर में आकर सेठ लक्ष्मीधर आदि अनेक श्रावकों को बड़े ठाठ-बाट से माला पहनाई।
६१. वहाँ से अजमेर के लिए विहार किया। वहाँ पर मुसलमानों के उपद्रव के कारण दो मास बड़े कष्ट से बिताये। तदनन्तर पाटण आये और पाटण से भीमपल्ली आकर चातुर्मास किया। कुहिपय ग्राम में जिनपाल गणि को वाचनाचार्य पद दिया। लवणखेड़ा में राणा केल्हण की ओर से विशेष आग्रह होने के कारण पुनः समतापूर्वक वाद-विचार, चर्चा के साथ दक्षिणावर्त आरात्रिकावतारण (जीमणी तरफ से आरती उतारना) स्वीकार किया। सं० १२५२ में पाटण आकर विनयानंद गणि को दीक्षित किया। सं० १२५३ में प्रसिद्ध भण्डारी नेमिचन्द्र श्रावक को प्रतिबोध दिया। इसके बाद मुसलमानों द्वारा पाटन नगर का विध्वंस होने पर महाराज ने घाटी गाँव में आकर चातुर्मास किया। सं० १२५४ में श्री धारा नगरी में जाकर श्री शान्तिनाथ देव के मन्दिर में विधिमार्ग को प्रचलित किया। अपने तर्क सम्बन्धी परिष्कारों से महावीर नाम के दिगम्बर को अतिरंजित किया और वहीं पर रत्नश्री को दीक्षित किया। आगे चलकर यही भहासती प्रवर्तिनी पद पर आरूढ़ हुई। तत्पश्चात् महाराज ने नागद्रह नामक गाँव में चौमासा किया। सं० १२५६ की चैत्र वदि पंचमी के दिन लवणखेट में नेमिचंद्र, देवचन्द्र, धर्मकीर्ति और देवेन्द्र नाम के पुरुषों को व्रती बनाया। सं० १२५७ में श्री शान्तिनाथ देव के विशाल विधि मन्दिर की प्रतिष्ठा करनी थी, परन्तु प्रशस्त शकुन के अभाव में विलम्ब हो गया। इसलिए वही प्रतिष्ठा सं० १२५८ की चैत्र वदि ५ को की गई और विधिपूर्वक मूर्ति स्थापना तथा शिखर-प्रतिष्ठा भी की गई। वहाँ पर चैत्र वदि २ के दिन वीरप्रभ तथा देवकीर्ति नामक दो श्रावकों को साधु बनाया। सं० १२६० में आषाढ़ वदि ६ के दिवस वीरप्रभ गणि और देवकीर्ति गणि को बड़ी दीक्षा दी गई और उनके साथ ही सुमति गणि एवं पूर्णभद्र गणि को चारित्र दिया गया तथा आनन्दश्री नाम की आर्या को "महत्तरा" का पद दिया।
तदनन्तर जैसलमेर के देवमन्दिर में फाल्गुन सुदि द्वितीया को श्री पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना की। इसका उत्सव सेठ जगद्धर ने बड़े विस्तार के साथ किया। सं० १२६३ फाल्गुन वदि चतुर्थी को लवणखेड़ा में महं० कुलधर कारित महावीर प्रतिमा की स्थापना की। उक्त स्थान में ही नरचन्द्र, रामचन्द्र, पूर्णचन्द्र और विवेकश्री, मंगलमति, कल्याणश्री, जिनश्री इन साधु-साध्वियों को दीक्षा देकर धर्मदेवी को प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया। उसी अवसर पर वहाँ ठा० आभुल आदि बागड़ीय श्रावक समुदाय पूज्यश्री की चरण वन्दना करने को आया था। लवणखेड़ा में ही सं० १२६५ में मुनिचन्द्र गणि, मानभद्र गणि, सुन्दरमति और आसमति इन चार स्त्री-पुरुषों को मुनि व्रत में दीक्षित किया। सं० १२६६ में विक्रमपुर में भावदेव, जिनभद्र तथा विजयचन्द्र को व्रती बनाया। गुणशील
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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