SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को वाचनाचार्य पद दिया और ज्ञानश्री को दीक्षा देकर साध्वी बनाया। सं० १२६९ में जाबालीपुर में महं० कुलधर के द्वारा कारित श्री महावीर प्रतिमा को विधि-चैत्यालय में बड़े समारोह से स्थापित की। श्री जिनपाल गणि को उपाध्याय पद दिया। धर्मदेवी प्रवर्तिनी को महत्तरा पद देकर प्रभावी नामान्तरण किया। इसके अतिरिक्त महेन्द्र, गुणकीर्ति, मानदेव, चन्द्रश्री तथा केवलश्री इन पाँचो को दीक्षा देकर विक्रमपुर की ओर विहार कर गये। ६२. सं० १२७० में बागड़ी लोगों की प्रार्थना स्वीकार करके "बागड़" देश में गये। वहाँ जाकर दारिद्रेरक नाम के नगर में सैकड़ों श्रावक-श्राविकाओं को मालारोपण, सम्यक्त्व, परिग्रहपरिमाण, दान, उपधान, उद्यापन आदि धार्मिक कार्यों में लगाया और उस निमित बड़े विस्तार के साथ सात नन्दियाँ की। सं० १२७१ में बृहद्वार नगर में संमुखागत श्री आसराज राणक आदि समाज के मुख्य-मुख्य अनेक लोगों के साथ ठाकुर विजयसिंह द्वारा विस्तारपूर्वक किये गये प्रवेशोत्सव से प्रवेश हुआ और पूर्ववत् नन्दियों की रचना करके अनेकों उत्सव मनाये। वहाँ मिथ्यादृष्टि गोत्रदेवियों की पूजा आदि मिथ्या-क्रिया को बन्द कराया। इससे वहाँ के रहने वाले श्रावक वर्ग के हृदयों में अत्यधिक प्रमोद का संचार हुआ। सं० १२७३ में बृहद्वार में लोक प्रसिद्ध "गंगा दशहरा" पर्व पर गंगा यात्रा करने के लिये बहुत से राणाओं के साथ नगरकोट के महाराजाधिराज श्री पृथ्वीचन्द्र भी आये हुए थे। उनके साथ में मनोदानंद नाम का एक काश्मीरी पण्डित रहता था। उस पण्डित को जिनप्रियोपाध्याय के शिष्य श्री जिनदास अपरनाम श्री जिनभद्र ने जिनपतिसूरि जी के साथ शास्त्रार्थ करने को उकसाया। पण्डित मनोदानन्द ने जिनपतिसूरि जी की पौषधशाला के द्वार पर शास्त्रार्थ का आह्वान पत्र चिपकाने के लिए अपने एक विद्यार्थी को भेजा। वह विद्यार्थी दिन के दूसरे प्रहर के समय उपाश्रय में आकर पत्र चिपकाने लगा। उसी समय पूज्यश्री के शिष्य धर्मरुचि गणि ने विस्मय वश होकर अलग ले जाकर उससे पूछा-य्यहाँ तुम क्या कर रहे थे? ब्राह्मण बालक ने निर्भय होकर उत्तर दिया-राजपण्डित मनोदानन्द जी ने आपके गुरु श्री जिनपतिसूरि जी को लक्ष्य करके यह पत्र चिपकाने को दिया है। उस विद्यार्थी की बात सुनकर हंसते हुए धर्मरुचि गणि जी ने कहा-"रे ब्राह्मण बालक! हमारा एक सन्देश पण्डित जी को कह देना कि-पण्डित जी! श्री जिनपतिसूरि जी के शिष्य धर्मरुचि गणि ने मेरी जबानी कहलवाया है कि पं० मनोदानंद जी! यदि आप मेरा कहना मानें तो आप आज पीछे वृक्ष शाखा का अवलंबन करियेगा, पत्रावलंबन नहीं, यानि इस शास्त्रार्थ की आकांक्षा से आप पीछे हट जाएँ तथा अपना पत्र वापस ले लें, अन्यथा आपके दाँत टूट जायेंगे। अभी न सही, किन्तु बाद में आप अवश्य ही मेरी सलाह का मूल्य समझेंगे।" उसी विद्यार्थी से पं० मनोदानन्द के विषय में जानने योग्य सारी बातें पूछ कर उसे छोड़ दिया। (११२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy