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साहस देख कर इन्द्र आदि देव भी आपको मुँह माँगा वर देने को उत्कण्ठित हो रहे हैं।" इस प्रकार भंडशाली संभव ने महाराज की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
इसके बाद श्रीमालवंश-भूषण वैद्य सहदेव, सेठ लक्ष्मीधर, ठाकुर हरिपाल, सेठ क्षेमंधर, वाहित्रिक उद्धरण आदि संघ-प्रधान पुरुषों ने महाराजश्री के पास आकर अभयड दण्डनायक का दुष्ट अभिप्राय कहा। महाराज ने खूब सोचकर जवाब दिया कि-"श्रावक महानुभावों! आप लोग किसी प्रकार से मन में परिताप न करें, श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज की चरण कृपा से सब भला होगा। परन्तु अब आप लोगों के प्रति मेरा आदेश यह है कि, श्री पाश्वनार्थ भगवान् की आराधना करने के लिए स्नात्र, कायोत्सर्ग आदि धार्मिक कृत्य करने के लिए आप सब लोग उद्यत हो जावें।" पूज्य श्री के उपदेश से सारा ही संघ धर्मकार्य में उद्यत हो गया। पूजा, धर्मध्यान करते-करते चौदह दिन बीत गए, परन्तु फिर भी वहाँ से संघ के निकलने का कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा। तब संघ के लोगों में से दो सौ ऊँट वाले मनुष्य तैयार हुए और विचार कर निश्चय किया कि "कल प्रात:काल होते ही ऐसा कुछ साहस करेंगे, जिससे संघ के सब लोग अपने-अपने स्थानों पर पहुँच जायेंगे।"
इधर अभयड दण्डनायक के भेजा हुआ मनुष्य वहाँ पहुँच कर सेनापति जगदेव पड़िहार की सेवा में हाजिर हुआ और अपने भेजने वाले मालिक का सन्देश कहते हुए वह पत्र उनके चरणों में भेंट किया। जगदेव की आज्ञा से उनके कर्मचारी ने पत्र को पढ़कर सुनाया। उसमें लिखा था कि"अपने देश में इस समय बड़े-बड़े धन सम्पन्न, सपादलक्ष देश का एक संघ आया हुआ है। यदि आपकी आज्ञा हो तो, सरकारी घोड़ों के लिए दानेका बन्दोबस्त कर दूं।" इस समाचार को सुनते ही राजा जगदेव आग-बबूला हो गया और उसी क्षण अपने आज्ञाकारी के हाथ से एक आज्ञा पत्र लिखवाया। उस पत्र का आशय यह था कि-"मैंने बड़े कष्ट से अजमेर के अधिपति श्री पृथ्वीराज के साथ सन्धि की है। यह संघ अजमेर सपादलक्ष देश का है। इसलिए इस संघ के साथ छेड़-छाड़ बिल्कुल भूल कर भी मत करना। यदि करोंगे, तो याद रखना, जीते जी तुमको गधे की खाल में सिला दूंगा।" राजाज्ञा से जवाब भेजा गया। उस मनुष्य ने भी शीघ्रगति से पहुँच कर दण्डनायक को पत्र दिया।
आये हुए इस जवाब को पाकर अभयड की आशालताओं पर पाला पड़ गया। वह ठंडा हो गया और फलस्वरूप अभयड ने शीघ्र जाकर उन लोगों से क्षमा मांगते हुए बड़े आदर-सम्मान के साथ संघ को वहाँ से विदा किया। संघ वहाँ से चलकर अनहिलपाटन नगर पहुँचा। वहाँ पर पूज्यश्री ने अपने गच्छ के चालीस आचार्यों को अपनी मंडली में मिला करके नाना प्रकार के वस्त्र देकर उनका सम्मान किया।
६०. इसके बाद आचार्यश्री संघ के साथ लवणखेटक नाम के नगर में गये। वहाँ पर पूर्णदेव गणि, मानचन्द्र गणि, गुणभद्र गणि आदि को क्रम से वाचनाचार्य की पदवी दी। इसके बाद पुष्करण नाम की नगरी में जाकर सं० १२४५ के फाल्गुन मास में धर्मदेव, कुलचन्द्र, सहदेव, सोमप्रभ, सूरप्रभ,
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
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