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आचार्य-पद-प्राप्त मेरे पुत्र को प्रतिबोध दिलाकर युगप्रधान श्री जिनपतिसूरि जी का शिष्य बना दूं।" पिता पुत्र में जबकि इस प्रकार की बातें हो रही थी उसी समय अति प्रमुदित हुए श्रावकों के साथ अभयड दण्डनायक का हाथ पकड़ कर पूज्यश्री वहाँ से उठ कर मकान के ऊपर वाले तल्ले में चले गये। पीछे-पीछे अन्यान्य नागरिक लोग भी गये, उन लोगों के साथ अभयड दण्डनायक आचार्यश्री को वन्दना करके नीचे आ गया। प्रद्युम्नाचार्य भी मानसिक परिताप के कारण म्लान मुख हुए, लज्जावश पृथ्वी की ओर देखते हुए सेठ क्षेमंधर के साथ अपनी पौषधशाला में चले गये। वहाँ एकत्रित हुए अन्य तमाम कौतुहल प्रेमी लोग भी अपने-अपने घरों को गये।
५९. अपने गुरु प्रद्युम्नाचार्य के मानसिक कष्ट को देखकर दण्डनायक अभयड को बड़ा दुःख हुआ। इसी कारण सारे नगर में शून्यता छा गई और नगर के बाहर संघ में अति आनन्द हुआ। भाण्डशालिक (भणशाली), संभव, वैद्य सहदेव, ठ० हरिपाल, सेठ क्षेमंधर, वाहित्रिक उद्धरण और सेठ सोमदेव आदि प्रमुख लोगों की ओर से विजय के उपलक्ष में बड़े विस्तार के साथ एक महोत्सव मनाया गया।
अभयड दण्डनायक ने सोचा-"ये लोग आगे जाकर मेरे गुरु की निन्दा करेंगे, इसलिए इन लोगों को किसी तरह यहाँ शिक्षा दे दी जाय तो बड़ा अच्छा हो।" ऐसा विचार कर अभयड दण्डनायक ने मालवा देश में स्थित गुर्जर कटक के प्रतिहार जगदेव के पास विज्ञप्ति पत्र सहित एक मनुष्य को भेजा और दूसरे ही दिन संघ को राजाज्ञा की आण देकर कहा-"महाराजाधिराज श्री भीमदेव की आण है कि आप लोग हमारी आज्ञा के बिना यहाँ से नहीं जा सकेंगे।" इतना ही नहीं संघ की चौकसी के लिए गुप्त रूप से एक सौ सैनिकों की गारद भी वहाँ डाल दी। संघ के लोग भी डर के मारे अपने-अपने मन में नाना प्रकार की संभावना करने लग गये।
अपने पक्ष की विजय देखकर हिलोरें लेते हुए परम आनन्द के वश होकर भंडशाली सेठ संभव पूज्यश्री के पास आकर हर्ष पूर्ण गद्-गद् वाणी से कहने लगा-"प्रभो! हम आपके पराक्रम को जानते हैं। सिंह के बच्चे भी सिंह ही होते हैं न कि शृगाल। गुजरातियों में प्रायः कपट बाहुल्य है, इसलिए इन कपटियों के साथ शास्त्रार्थ करने में सफलता को भी विरला ही पाता है। मैंने आपको प्रद्युम्नाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करने की अनुमति इसलिए ही तो नहीं दी थी कि-यदि इन कपटियों के कूट प्रयोग से कदाचित् कोई निन्दा हो जायगी तो फिर लोगों के सामने ऊँचा मस्तक करके बोल नहीं सकेंगे। परन्तु, महाराज आपने तो बड़ा ही अच्छा किया कि गुजरात प्रान्त में समस्त आचार्यों के मुकुटभूत प्रद्युम्नाचार्य को सब लोगों के सामने हरा कर, उसकी बोलती बंद करके दान्त खट्टे कर दिये। महाराज! आपके इस एक चरित्र से अत्यन्त हर्षित हुए स्वर्गस्थ गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज अमृतपान की अभिलाषा को भूल गए। प्रभो! आपके धैर्य को देखकर भगवती शासनदेवता भी आज अपने को सजीव हुई मानती है। भगवन् ! आपकी इस प्रकार की वाद-लब्धि को देखकर भगवती सरस्वती ने भी अपनी प्रसन्नता का प्रभाव जाना है। पूज्यवर! आपका इस प्रकार अपूर्व
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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