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________________ एवमिणं उवगरणं धारेमाणो विहीइ परिसुद्धं । होइ गुणाणाययणं अविहि असुद्धे अणाययणं ॥ ७६२॥ व्याख्या-"एवम्" उक्तन्यायेन उवकरणं धारयन् विधिना "परिशुद्धं" सर्व दोष वर्जित, किं भवति? गुणानामायतनं-स्थानं भवति । अथपूर्वोक्तविपरीतं क्रियते यदुताविधिना धारयति अविशुद्धं च तदुपकरणं, ततोऽविधिना अशुद्धं ध्रियमाणं तदेवोपकरणं "अनायतनं" अस्थानं भवतीति ॥ [इस प्रकार जो उपकरण उद्गमादि सर्व दोषों से रहित होते हुए शास्त्रोक्त विधि से धारण किया जाता है, वह (उपकरण) समस्त गुणों का आयतन (स्थान) होता है और जो इससे विपरीत हो यानि उद्गमादि दोष दूषित होने के साथ अविधि से धारण किया गया हो वह उपकरण अनायतन कहा जाता है। इसी तरह जिन प्रतिमा के लिए भी समझिये, यानि जो जिनप्रतिमा प्रमाणहीनत्वादि दोष मुक्त हो एवं जिसकी पूजा आदि में शास्त्रोक्त विधि का यथावत् पालन न होता हो उस जिन प्रतिमा को भी अनायतन क्यों न मानी जाय? अर्थात् अनायतन ही माननी चाहिए।]" पूज्यश्री के मुख से इस गाथा की व्याख्या सुनकर प्रद्युम्नाचार्य उदास हो मौन धारण करके चुपचाप बैठ गये। इसके बाद सेठ क्षेमंधर ने हाथ जोड़ कर प्रद्युम्नाचार्य से पूछा-जिनप्रतिमा अनायतन है या नहीं। प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-सेठजी, इस गाथा के अर्थ से तो यही जाना जाता है कि जिनप्रतिमा भी अनायतन होती है। तत्पश्चात् क्षेत्रों में आनन्दाश्रु धारण करते हुये सेठ क्षेमंधर ने अपने मस्तक के केशों से प्रद्युम्नाचाय के चरण पोंछे और पुत्र स्नेह से बोला-वत्स! श्री जिनदत्तसूरि जी के मार्ग में लगे हुए मुझे इतने दिन हो गए, परन्तु मेरे मन में यह बात नहीं जमी थी कि लाखों रुपये लगा कर ऊँचे तोरण वाला जो देवगृह बनाया जाता है, वह भी अविधि के कारण अनायतन हो सकता है? आज तुम्हारे मुँह से ऐसा देवगृह भी अनायतन हो सकता है, यह बात सुन कर मुझ को बड़ी खुशी हुई। प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-सेठ क्षेमंधर! दूसरे सिद्धान्तों के प्रमाण दिखला कर मैं यह सिद्ध करूँगा कि देवगृह अनायतन नहीं होता। पूज्यश्री से भी प्रद्युम्नाचार्य ने कहा-आचार्य जी! हमारे नाम से अंकित पराजय सम्बन्धी रास काव्य और चौपाई बगैरह मत बनवाना और न किसी से पढ़वाना। इसके बाद पूज्यश्री ने सेठ क्षेमंधर के लिहाज के कारण बुलन्द आवाज से अपने संघ में यह घोषणा कर दी कि-"जो हमारी आज्ञा मानता हो उसे चाहिए कि प्रद्युम्नाचार्य के पराजय सम्बन्धी अर्थ से पूर्ण रास काव्य और चौपाई न बनावें और न पढ़ें पढ़ावें।" प्रेमाई हृदय होने के कारण आँखों में अश्रु लाकर सेठ क्षेमंधर ने कहा-"वत्स! मैंने तुम्हें बदनाम करने के लिए यह वाद प्रारम्भ नहीं कराया है। मेरा अभिप्राय तो यह था कि विद्यापात्र, (१०८) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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