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संख्या २१०० हो गई थी। इस अवसर पर आपश्री ने कइयों को पद प्रदान किया तथा संघ में आगत हजारों साधुओं-आचार्यों का विधि पूर्वक सम्मान किया। मिती फाल्गुन वदि २ को संघ सहित राजसी ठाठ से यात्रा करते हुए श्री पंचतीर्थी, आबू, तारंगा, शंखेश्वर, रैवताचल आदि अनेक तीर्थों की यात्रा करते, अनेक तीर्थों का जीर्णोद्धार कराते हुए, चैत्यों में आभरण, उपकरणादि नाना भेंट चढाते हुए, अनेक भक्ति भाव के कार्य करते हुए अमरेली नगर में ठहर कर श्री सिद्धगिरिराज की पूजा करके मणिमाणिक-रत्न आदि से वर्धापन किया । तदनंतर श्री पादलितपुर में गाजे-बाजे के साथ बड़े ठाठ से श्री जिनवन्दनार्थ पधारे। वैशाख सुदि १४ को श्री पुण्डरीक गिरि की विधिपूर्वक पूजा करके सब जिन प्रतिमाओं की भक्ति भाव से वन्दना की । नवांग पूजा की। वहाँ श्री गिरिराज पर स्थित श्री शिवा सोम शिखर पर श्रीआदि जिनमन्दिर के द्वार पर दोनों ओर गोमुख यक्ष तथा चक्रेश्वरी देवी की प्रतिष्ठा बड़े उत्सवपूर्वक की। इसके पश्चात् ज्येष्ठ सुदि ५ को जिनमहेन्द्रसूरि जी की उपस्थिति में संघपति जी को बड़े समारोह के साथ संघमाला पहनाई गई। वहाँ से संघ के साथ विहार करके भावनगर आये । यहाँ से घोघा नवखण्ड पार्श्वनाथ की यात्रा की ।
इसी समय बम्बई के सेठ मोती शाह का वहाँ विहार कर पधारने का वीनती पत्र आने पर, वहाँ से सकुशल यात्रा कर खंभात, बड़ोदरा, भरूच आदि नगरों में विचरते हुये सूरत पधारे और संघ की प्रार्थना और आग्रह से वहीं चातुर्मास किया । वहाँ से मार्गशीर्ष द्वितीया को विहार कर बम्बई पधारे । सेठ मोती शाह ने नगर प्रवेश बड़े ठाठ से करवाया । नाहटा गोत्रीय सेठ मोतीचंद खेमचंद के आग्रह से फिर संघ सहित श्री सिद्धगिरि पधार कर मोतीवसही में इक्कीस दिन के उत्सवपूर्वक जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई। इस अवसर पर तपागच्छ के दो आचार्य वहाँ प्रतिष्ठा कार्यार्थ आये हुए थे, परन्तु सं० १८९३ माघ सुदि १० के दिवस प्रतिष्ठा कार्य आपश्री के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ और फाल्गुन वदि २ को जिनबिम्बों की वेदिका से विधिपूर्वक पहाड़ पर स्थापना की और अपने करकमलों से बावन संघपतियों को माला पहनाई। इस समय संघपति ने अनेकों आचार्य और १२०० साधुओं की पूजा कर उन्हें सत्कृत किया ।
शत्रुंजय से विहार कर क्रमश: गिरनार, शंखेश्वर, राधनपुर, अहमदाबाद होते हुए मारवाड़ में गूढ़ा नगर में श्री जिनलाभसूरि जी के चरण पादुका की प्रतिष्ठा की। बिलाडा में अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि जी - चौथे दादा साहब के चरणों की प्रतिष्ठा की । यहाँ से चलकर बालोतरा, सिवाण होकर पाली पधारे और द्वितीय चातुर्मास यहीं किया। वहाँ से बेनातट, कापरड़ा हो कर, जैसलमेर पधारे, चातुर्मास किया । जैसलमेर के महारावल गजसिंह जी ने आपकी बहुत भक्ति की । वहाँ से उदयपुर पधार सम्मेतशिखर पट्ट की प्रतिष्ठा कराई। महाराणा स्वरूपसिंह जी ने बहुत आदर सम्मान किया। आपने मण्डोवर में श्री जिनहर्षसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा की।
सं० १९०१ पौष सुदि पूर्णिमा के दिन रतलाम में बाबा साहब के बनवाये हुये बावन जिनालय मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। इस समय आपके साथ ५०० यतियों का समुदाय था । महीदपुर के बड़े
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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