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________________ मन्दिर की प्रतिष्ठा भी आपने ही कराई थी। इस प्रकार आपके कर-कमलों से अनेक प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हुए। जैसलमेर में बाफणों के ऐतिहासिक संघ में बीस लाख का व्यय हुआ था। जोधपुर नरेश और उदयपुर नरेश आपश्री के परम भक्त थे। इन दोनों नरेशों ने आपश्री को जो समय-समय पर विज्ञप्तियाँ की थीं, वे आज भी मौजूद हैं। आपने बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, मालवा आदि प्रदेशों में विचरण कर हजारों प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई। आपके द्वारा रचित विभिन्न ग्रंथ हैं। आप बृहत्खरतरगच्छ के प्रगतिशील आचार्य थे। सं० १९१४ भाद्रपद कृष्णा ५ को मण्डोवर दुर्ग में आपका स्वर्गवास हुआ। वहाँ आपश्री का स्मारक तथा चरण विद्यमान हैं। (२. आचार्य श्री जिनमुक्तिसूरि) आचार्य जिनमुक्तिसूरि जी का जन्म सालेचा बोहरा गोत्रीय काछी बड़ौदा (मालवा) निवासी मोहता साह खेमचंद की धर्मपत्नी चमना देवी की कुक्षि से सं० १८८७ कार्तिक (फाल्गुन) कृष्णा ९ के दिन हुआ। जन्म नाम मूलचंद था। सं० १९०७ फाल्गुन सुदि ७ को सम्मेतशिखर तीर्थ में आप दीक्षित हुए। दीक्षा नाम महिमाकीर्ति था। सं० १९१५ द्वितीय ज्येष्ठ शुक्ला १० चन्द्रवार को कन्या लग्न, देव मुहूर्त में श्री लक्ष्मणपुर (लखनऊ) निवासी नाहटा गोत्रीय भूप हजारीमल गाँधी सपरिवार, छुट्टनलाल प्रेमचंद आदि तथा बनारस-मिर्जापुर के श्रीसंघ द्वारा कृत नन्दि महोत्सवपूर्वक बनारस में आपकी पद स्थापना हुई। वहीं पर आपने प्रथम चातुर्मास किया। आपश्री के उपदेश से शाह चुन्नी ने गुरुदेव भट्टारक श्री जिनमहेन्द्रसूरि जी के चरण स्तूप की प्रतिष्ठा कराई। माधोपुर में स्तूप प्रतिष्ठा की। काशी से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए कोटा होकर बूंदी पधारे और वहाँ सं० १९२० में जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा की। अजमेर से पीसांगण में जाकर मूलनायक चिंतामणि पार्श्वनाथ को स्थापित किया। अजमेर, बुचकला, पीपाड़, कापरड़ाजी यात्रा कर नागौर होकर जोधपुर पधारे। सं० १९२१ का चातुर्मास जोधपुर किया। फिर अजमेर में दादा जिनदत्तसूरि जी की यात्रा की, रथयात्रादि उत्सव हुए। लूणिया आदि संघ ने सेवा की, गोठ रचाई। तदनन्तर आप जयपुर पधारे। जयपुरीय पटवों के मुनीम चाँदमल प्रभृति संघ ने आपका धूमधाम से नगर प्रवेश कराया। एक समय आप जैसलमेर से विहार कर फलौदी पधार रहे थे। मार्ग में पोकरण गाँव में ठाकुर कुमार वन में शिकार कर रहे थे। अहिंसा मूर्ति आपश्री के मना करने पर भी वह बंदूक चलाने लगा तो आपके तपोबल से बंदूक का मुँह बन्द हो गया और वह गोली चलाने में असमर्थ रहा। उसने पूज्यश्री को प्रणाम किया और प्रार्थना कर आग्रहपूर्वक पोकरण ले जाकर बड़ी भक्ति की। वहाँ से चांपावत फतहसिंह जी आपश्री के आशीर्वाद से जयपुर के दीवान बन गए । तब दीवान सा० ने तत्कालीन महाराज रामसिंह जी के १. दफ्तर बही में नाम मेघराज लिखा है व दीक्षा तिथि फाल्गुन सुदि १ लिखी है। (३२०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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