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आगे आपकी प्रशंसा की। तदनुसार महाराजा साहब ने आपश्री को राजभवन में आग्रहपूर्वक बुलाकर कोई चमत्कार दिखाने की प्रार्थना की। तब आपश्री ने स्तंभ (खंभे) द्वारा महाराजा के प्रश्नों का उत्तर दिलवाया। यह अद्भुत चमत्कार देख कर महाराजा सा० ने उपाश्रय भेंट किया और आपश्री का गुरु भाव से सम्मान करने लगे। इस प्रकार और भी अन्यान्य चमत्कारों पर मुग्ध होकर महाराजा सा० ने "ढींगारिया भीम" नामक गाँव, दुशाला, ५००/- रुपये, पाँवों में पहनने का सुवर्ण और चँवर, छत्र-पालखी आदि राजसी उपकरण भेंट किये। लवाजमे की सवारी के साथ आपश्री को उपाश्रय में पहुँचाया।
सं० १९२८ में आप जोधपुर पधारे, वहाँ बड़े समारोह से नगर प्रवेश कराया गया। आपके गुण सौरभ से परिचित तत्कालीन जोधपुर नरेश तख्तसिंह जी ने आसोपा व्यास भानीराम जी द्वारा आपसे राजमहल में पधारने की प्रार्थना करवाई। तदनुकूल राजकीय सवारी के साथ लवाजमा से आपको महलों से पधराया। महाराजा श्री तख्तसिंह जी ने जोधपुर में चातुर्मास करने की बहुत प्रार्थना की, किन्तु जैसलमेर प्रतिष्ठा कराने के लिये पधारना आवश्यक था। अत: आप वहाँ चातुर्मास न कर सके
और जैसलमेर पधार गये। पटवों के सुप्रसिद्ध वंशज संघवी सेठ हिम्मतराम जी ने संघ सहित आपका जैसलमेर में बड़े समारोह से सामेला किया। पटवों द्वारा निर्मित अमरसागर के मन्दिर की आपश्री ने प्रतिष्ठा कराई। संघवी जी की अत्यधिक भक्ति और श्रद्धा से आपश्री ने वहाँ छः चातुर्मास किए।
सं० १९३२ में ह्रींकार यन्त्र प्रतिष्ठित किया। अमरसागर मन्दिर की सं० १९४५ की प्रशस्ति में यहाँ आपश्री द्वारा अंजनशालाका कराने, दादा साहब के चरण-प्रतिमा व जिनमहेन्द्रसूरि जी के चरण स्थापना करने तथा श्री जिनमुक्तिसूरि जी द्वारा पाँच शिष्यों को दीक्षित करने व पन्द्रह दिन तक के उत्सव का विशद वर्णन है। सं० १८९६ ज्येष्ठ सुदि २ के ६६ पंक्ति के लेख में पटवों के संघ का विस्तृत वर्णन है (जैन लेख संग्रह, भाग ३, ले० २५३०-३१)
सं० १९४० में आपने ब्यावर के श्रीसंघ द्वारा बनवाये हुये मन्दिर तथा दादा साहब की पादुका की प्रतिष्ठा की। सं० १९४३ में जयपुर के बांठियों के मन्दिर की प्रतिष्ठा पायचंद गच्छ के श्रीपूज्य जी के साथ मिलकर की।
संवत् १९४३ फाल्गुन सुदि ३ को आगरा निवासी जवार कंवर और राज कंवर द्वारा निर्मित आदिनाथ मन्दिर (नया मन्दिर) की प्रतिष्ठा भी पायचंद गच्छ के श्री पूज्य हेमचन्द्रसूरि के साथ आपने कराई थी। इसका वर्णन मन्दिर में लगे हुए शिलापट्ट से ज्ञात होता है। यह शिलापट्ट संवत् २००३ तक मन्दिर में लगा हुआ था, किन्तु वह आज यथास्थान दृष्टिगोचर नहीं होता है।
सं० १९५२ में रतलाम में सेठ सौभाग्यमल जी, चाँदमल जी बाफना के बनवाये हुये मन्दिर की प्रतिष्ठा की और मन्दिर के पास ही दादावाड़ी में श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज की मूर्ति स्थापित की
और उसके एक तरफ श्री जिनकुशलसूरि जी तथा दूसरी ओर श्री जिनचन्द्रसूरि जी की चरण पादुकाएँ विराजमान कराईं। सं० १९५५ फाल्गुन वदि ५ को आपने "आहोर" में अंजनशलाका करवाई। इस समय आप यद्यपि अत्यधिक अस्वस्थ थे, परन्तु श्रीसंघ की साग्रह प्रार्थना पर प्रतिष्ठा करने जयपुर से
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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