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________________ १०. मण्डोवरा शाखा आचार्य जिनहर्षसूरि के आकस्मिक स्वर्गवास से उत्तराधिकारी के लिए पारस्परिक विभेद हो गया। इसी बीच मुक्तिशील जी को पाट बैठा दिया गया जो जिनमहेन्द्रसूरि नाम से विख्यात हुए। प्रथम पक्ष में जोधपुर नरेश व जैसलमेर के पटवा सेठ थे, दूसरी और बीकानेर नरेश व गच्छ के कतिपय वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध यतिजन थे। उन्होंने जिनसौभाग्यसूरि को बैठाया जो बीकानेर गद्दी के मान्य हुए। सं० १८९२ में मण्डोवर (जोधपुर) से यह शाखा उत्पन्न हुई, इसलिए वह मण्डोवरा नाम से विख्यात है। इसके आद्य आचार्य जिनमहेन्द्रसूरि हैं। १. जिनमहेन्द्रसूरि २. जिनमुक्तिसूरि ३. जिनचन्द्रसूरि ४. जिनधरणेन्द्रसूरि (१. आचार्य श्री जिनमहेन्द्रसूरि) सं० १८६७ में अलाय (मारवाड़) ग्राम निवासी सावणसुखा गोत्रीय शाह रुघ जी की धर्मपत्नी सुन्दर देवी की रत्नकुक्षि से आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम मनरूप जी था। सं० १८८५ वैशाख सुदि १३ को नागौर नगर में आपने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम मुक्तिशील' था। सं० १८९२ मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी सोमवार के दिवस प्रातः मण्डोवर महादुर्ग में श्रीसंघ तथा जोधपुर नरेश श्री मानसिंह जी कृत महोत्सव द्वारा शुभ लग्न में ५०० साधु-यतिजनों की उपस्थिति में आपका पट्टाभिषेक हुआ। वहाँ से विहार करके पल्लिका (पाली) पधारे। ___ जैसलमेर के बाफणा गोत्रीय शाह बहादरमल, सवाईराम, मगनीराम, जोरावरमल, प्रतापमल, दानमल आदि ने सपरिवार आपश्री के उपदेश से आपके साथ शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा कर जन्म सफल करने का निश्चय किया। माघ सुदि १० को विजय मुहूर्त में पाली में आकर एकत्र हुए संघ के समक्ष बड़े महोत्सव के साथ धर्मपत्नी सह श्रेष्ठि दानमल जी को संघपति पद प्रदान किया। कोटा नरेश, बूंदी नरेश की ओर से फौज-पलटन, तोपों के जोड़े आदि सब साथ थे और दोनों ही नरेश साथ में यात्रार्थ पधारे थे। आचार्य श्री जिनमहेन्द्रसूरि जी की उपस्थिति में लोंका (पंजाबी) गच्छीय श्रीपूज्य रामचन्द्र जी, अंचलगच्छीय श्रीपूज्य जी, तपागच्छीय श्रीपूज्य जी, आचार्जीया श्री पूज्य कीर्तिसूरि, पीपलिया श्रीपूज्य जी, भावहर्षीया श्रीपूज्य जिनपद्मसूरि आदि सात श्रीपूज्य तथा दिगम्बर भट्टारक अनंतकीर्ति जी आदि सब ७०० साधु यति थे। यह संख्या प्रारंभिक है। आगे जाकर ११ श्रीपूज्य और साधु-साध्वियों की १. ये जिनसुखसूरि शाखा के पं० मुक्तिसागर के शिष्य थे, जिन्हें सं० १८८८ अक्षय तृतीया को जिनहर्षसूरि ने अपना दत्तक शिष्य बनाया। दफ्तर बही के अनुसार इनकी दीक्षा सं० १८८३ मिगसर वदि २ को बीकानेर में हुई थी। "शील" नंदी इसी समय की है। जिनहर्षसूरि ने सं० १८८४ में "माणिक्य" नंदी और १८८६ में "राज" नंदी स्थापित की थी। (३१८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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