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________________ जी ने सं० १३४१ श्री युगादिदेव भगवान् के पारणे से पवित्र की हुई वैशाख सुदि अक्षय तृतीया को बड़े आरोह- समारोह पूर्वक अपने पाट पर श्री जिनचन्द्रसूरि को स्थापित किया, जो अपने शरीर की शोभा से कामदेव को मात करने वाले थे, सब भव्य पुरुषों के मन- कमल को विकसित करने में सूर्य का सादृश्य रखने वाले थे, नाना गुण रत्नों की खान एवं अत्यधिक गंभीरता के गुण से समुद्र को भी परास्त करने वाले थे। उसी दिन राजशेखर गणि को वाचनाचार्य का पद दिया । इसके बाद वैशाख सुदि अष्टमी के दिवस पूज्यश्री ने सारे संघ को एकत्र करके खूब विस्तार से मिथ्या दुष्कृत दिया । दिनों-दिन बढ़ते हुए शुभभावों से जिन्होंने संसार के पदार्थों की अनित्यता जानकर चौतरफ बैठे हुए साधुओं द्वारा निरन्तर गेयमान समाराधनाओं को सुनते हुए, देव गुरुओं के चरण-कमलों की भली-भाँति आराधना करके, अपने मुख कमल से पंच परमेष्ठी नमस्कार महामंत्र का उच्चारण करते हुए, अपनी कीर्ति से पृथ्वी को धवल करके, उत्तम ज्ञान रूप लक्ष्मी के कण्ठ के हार तुल्य आचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि जी महाराज वैशाख सुदि एकादशी के दिन सदा के लिए इस असार संसार को छोड़कर अमर पद को पहुँच गये। विशेष श्री जिनप्रबोधसूरि चतुःसप्ततिका :- यह रचना भी ७४ प्राकृत गाथाओं में है। इसके रचयिता विवेकसमुद्र गणि हैं । इन्होंने विक्रम सं० १३०४ में दीक्षा ग्रहण की । १३२३ में वाचनाचार्य बने । १३४२ में उपाध्याय बने । इस कृति का सारांश निम्न है ओसवाल साहू खींवड गोत्री श्रीचन्द्र और उनकी पत्नी सिरिया देवी के कुल में चन्द्रमा के सदृश आप थे । आपका जन्म गुजरात के थारापद्र नगर में सं० १२८५ में मिती श्रावण सुदि ४ के दिन पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ। आपका जन्मनाम मोहन रखा गया। सं० १२९७ मिती फाल्गुन वदि ५ के दिन श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज ने आपको पालनपुर में दीक्षित कर आपका नाम प्रबोधमूर्ति रखा जो कि स्वसमय परसमय ज्ञाता होने से सार्थक हो गया। सं० १३३१ के आश्विन कृष्ण ५ के दिन स्वयं श्री जिनेश्वरसूरि ने उन्हें अपने पट्ट पर विराजमान किया। उनके स्वर्गवास के पश्चात् श्री जिनरत्नसूरि जी ने दशों दिशाओं से आये हुए चतुर्विध संघ के समक्ष सं० १३३१ मिती फाल्गुन कृष्ण ८ के दिन जावालिपुर में नाना उत्सव महोत्सवपूर्वक श्री जिनप्रबोधसूरि का पट्टाभिषेक किया। आपने वृत्ति - पंजिका सहित दुर्ग-पद- प्रबोध नामक ग्रंथत्रय की रचना की । आप बड़े भारी विद्वान, प्रभावक और गच्छभार धुरा धुरंधर हुए । -: क्षमाकल्याणोपाध्याय कृत पट्टावली के अनुसार प्रबोधमूर्ति की दीक्षा थारापद्र में हुई थी । आचार्य पद प्राप्ति के पूर्व इन्होंने कातंत्रदुर्गप्रबोध टीका की रचना की थी। खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली के अनुसार वि०सं० १३३७ और १३३८ के मध्य इन्होंने वृत्तप्रबोध, पंजिकाप्रबोध और बौद्धाधिकारविवरण की रचना की थी। ये कृतियाँ वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। (१४६) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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