________________
७९. उसी वर्ष ज्येष्ठ वदि चौथ के दिन जगच्चन्द्र मुनि और कुमुदलक्ष्मी, भुवनलक्ष्मी को दीक्षा दी गई और पंचमी के दिन चंदनसुन्दरी गणिनी को महत्तरा पद दिया गया । उसका चन्दनश्री यह नामान्तर रखा गया। इसके बाद सम्मुख आये हुए श्रीसोम महाराज की विनती स्वीकार करके पूज्यश्री ने शम्यानयन में चातुर्मास किया । तदनन्तर अतुल बलशाली राजाओं के मुकुटों में लगे हुए रत्नों की किरण रूप पाणी प्रवाह से निज चरण-कमलों को धवलित करने वाले, भव्य लोगों को सम्यक्त्व सम्पादित करने वाले पूज्यश्री जैसलमेर पधारे। जैसलमेर नरेश कर्णदेव महाराज सम्पूर्ण सेना के साथ मुनीन्द्र के स्वागत के लिए सम्मुख पधारे। मुनीन्द्र श्री जिनप्रबोधसूरि जी महाराज का जैसलमेर में सं० १३४० फाल्गुन चौमासी के दिन बड़े समारोह के साथ नगर प्रवेश महोत्सव हुआ ।
वहीं पर वैशाख सुदि अक्षय तृतीया के दिन उच्चापुर, विक्रमपुर, जावालिपुर आदि स्थानों से आये हुए संघ के मेले में सर्व संघ समुदाय सहित सेठ नेमिकुमार और गणदेव ने विपुल धन व्यय करके चौबीस जिन मन्दिर निमित्त जिन-प्रतिमा तथा अष्टापदादि तीर्थों की प्रतिमाओं का और उन्हीं के धवल दण्डों का प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े ही ठाठ से किया। इस अवसर पर धर्म कोष में छः हजार रुपयों की आय हुई। जेठ सुदि चतुर्थी के दिन मेरुकलश मुनि, धर्मकलश मुनि, लब्धिकलश मुनि तथा पुण्यसुन्दरी, रत्नसुन्दरी, भुवनसुन्दरी, हर्षसुन्दरी इन साध्वियों का दीक्षा महोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ । श्री कर्णदेव महाराज का विशेष आग्रह होने से वहाँ पर (जैसलमेर में ही) चातुर्मास करके नाना प्रकार के धर्मोपदेशों से नागरिक लोगों के मन में चमत्कार पैदा करके पूज्य श्री विक्रमपुर से आये हुए संघ की अत्यन्त भक्तिपूर्व प्रार्थना से विक्रमपुर पधारे। वहाँ पर बड़े ठाठ से प्रवेश कर युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी महाराज द्वारा संस्थापित मरुधर भूमि में कल्पवृक्षतुल्य श्री महावीर स्वामी के श्रेष्ठतीर्थ की विधिपूर्वक वंदना की । वहाँ पर उच्चापुर, मरुकोट आदि नाना स्थानों से आने वाले लोगों के मेले में श्री महावीर विधि - चैत्य में बड़े विस्तार के साथ सम्यक्त्वधारण, माला ग्रहण, दीक्षादान आदि नन्दि महोत्सव किया गया । यह कार्य सं० १३४१ फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिवस हुआ था। उस उत्सव के अवसर पर विनयसुन्दर, सोमसुन्दर, लब्धिसुन्दर, चन्द्रमूर्ति, मेघसुन्दर को साधु दीक्षा और धर्मप्रभा, देवप्रभा को साध्वी के रूप में दीक्षित किया । यह साधु-साध्वी छोटी उम्र के थे, इसलिए इनको क्षुल्लक क्षुल्लिका लिखा गया है।
वहाँ पर श्री महावीर तीर्थ का प्रभाव बढ़ाने वाले, ज्ञान-ध्यान के बल से सब मनुष्यों के मन में आश्चर्य उत्पन्न करने वाले, स्वपक्षी - परपक्षी, जैन- जैनेतर सब लोग जिनके चरण-कमलों की आराधना कर रहे हैं, जिनके आचार - चारित्र बड़े पवित्र हैं, ऐसे पूज्यश्री के शरीर में भयंकर दाह ज्वर उत्पन्न हुआ। ज्वर की भयानकता देखकर ध्यान-बल से अपने आयुष्य का अत्यल्प परिमाण जानकर, निरन्तर विहार करके पूज्यश्री जावालिपुर आ गये। वहाँ पर सब लोगों के लिए आश्चर्यकारी श्री वर्द्धमान स्वामी के महातीर्थ में बारह प्रकार के नन्दि बाजों के बजते हुए, श्रेष्ठ धवल - मंगल गीतों के गाये जाते हुए, पुर-सुन्दरियों के नाचते हुए, दीन- अनाथ दुःखी लोगों को महादान दिये जाते हुए, अनेक ग्राम व अनेकों नगरों के श्रीसंघों की विद्यमानता में पूर्वजों के समान निर्मल चरित्र वाले श्री जिनप्रबोधसूरि
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
(१४५)
www.jainelibrary.org