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की घोषणा कर दी गई थी। ऐसे शुभ अवसर पर वहाँ के जिनालय निमित्त चौबीस जिन प्रतिमाओं व ध्वज-दण्डों का, जोयला ग्राम के वास्ते श्रीपार्श्वनाथ की और भी बहुत सी जिन प्रतिमाओं का प्रतिष्ठा महोत्सव विधिमार्ग के जय-जय घोष के साथ किया गया था। इस उत्सव के समय कृष्ण नाम के पंडित ने श्रीपंजिकाप्रबोध, श्रीवृत्तप्रबोध, श्रीबौद्धाधिकारविवरण आदि पूज्यश्री रचित ग्रन्थों को देखकर प्रमुदित चित्त होकर तुरग-पद समस्या, अनुलोम-प्रतिलोम आदि अनेक प्रकार से कहे हुए श्लोकों को सम्पूर्ण रूप से कहना आदि अनेक अवधान करके दिखलाये। उसने अनेक पण्डित तथा मंत्री विन्ध्यादित्य आदि उच्च श्रेणी के पुरुषों से भरी हुई सभा में अनेक छन्दों में बनाये हुए पवित्र श्लोकों से पूज्यश्री की स्तुति की। उस उत्सव में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं हुआ। इसका एकमात्र कारण पूज्यश्री का वह वज्र समान जप-तप ध्यान है जिसके द्वारा कलिकालोत्पन्न प्रत्यूह-समूह-शैल निर्दलित हो गया है। ये सभी महोत्सव सेठ मोहन और आसपाल आदि सकल संघ ने अपने लाखों रुपये खर्च करके असार संसार को सफल बनाने के लिए किए थे। इस महोत्सव के समय श्रीवासुपूज्य विधिचैत्य में संघ की ओर से तीस हजार रुपये की आय हुई। वहीं पर द्वादशी के दिन आनन्दमूर्ति तथा पुण्यमूर्ति नामक दो मुनियों को दीक्षा दी गई। इसके निमित्त भी विशेष महोत्सव हुआ। ___७८. सं० १३३९ फाल्गुन सुदि ५ के दिन, मंत्री पूर्णसिंह, भंडारी राजा, गो० जिसहड़ और देवसिंह, मोहा आदि की प्रधानता में आए हुए जावालीपुर के समस्त संघ के अतिरिक्त, प्रह्लादनपुरीय, बीजापुरीय, श्री श्रीमालपुरीय, रामशयनीय, श्रीशम्यानयनीय, बाड़मेरीय, श्री रत्नपुरीय आदि अनेक ग्रामनगरों से आई हुई संघों की पाँच सौ गाड़ियाँ इकट्ठी हुईं थीं। इन सब विधिमार्गानुगामी संघों के साथ श्री जिनरत्नाचार्य, देवाचार्य, वाचनाचार्य विवेकसमुद्र गणि आदि नाना मुनियों को साथ लेकर तामसअज्ञान पटलों को हटाने वाले, समस्त जनता के वदनरूपी कुमुद (कमल) वन को विकसित करने वाले, सम्पूर्ण मनुष्यों के नेत्र चकोरों को वाङ्मय-अमृतवाणी से आनन्दित करने वाले, प्रतिग्राम तथा प्रतिनगर में विधिमार्ग के जय-जयकार के साथ अपने ऐश्वर्य को सफल करने वाले, पवित्रता की मूर्ति युगप्रधानाचार्य श्री जिनप्रबोधसूरि जी महाराज ने फाल्गुन चातुर्मास में अतीव रमणीयता धारण करने वाले, सर्वविश्व के सारभूत, पर्वतोत्तम आबू पर्वत में जाकर वहाँ पर विराजमान श्री ऋषभनाथ और नेमिनाथ तीर्थंकरों की वन्दना की। यहाँ पर आनन्दमग्न श्रावक लोग अपने घरों की चिन्ता भूल गये। धन खर्च करके पुण्यानुबन्धी पुण्य का संचय करने वाले श्रावक लोग त्रिलोकी में अपने को धन्य मान रहे थे। इस उत्सव में आठ दिनों का समय लगा। इन दिनों में इन्द्रादि पद लेकर श्रावक लोगों ने सात हजार रुपये तीर्थ में समर्पण किये। तदनन्तर पूज्यश्री के प्रताप से अपने जन्म और वैभव को सफल करने वाले तथा बड़े-बड़े मनोरथों को पूर्ण करने वाले श्रीसंघ ने आनन्दपूर्वक नगर प्रवेश महोत्सव के साथ जावालिपुर में प्रवेश किया।
१. वर्तमान में ये तीनों ही ग्रन्थ दुष्प्राप्य हैं।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
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