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३. उत्सूत्र प्ररूपक :- • जिनवल्लभसूरि ने सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण की १४वीं कारिका के उत्तरार्ध में शक्तिविशेष को भी संहनन स्वीकार किया है। जिनवल्लभ से पूर्ववर्ती आचार्य हरिभद्रसूरि, अभयदेवसूरि, चन्द्रगच्छीय धनेश्वरसूरि, तपागच्छीय देवेन्द्रसूरि आदि ने भी शक्तिविशेषरूप संहनन को स्वीकार किया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह जिनवल्लभ की अपनी प्ररूपणा नहीं है, उसकी मान्यता व्यापक है। इस सम्बन्ध में जो भी चर्चा पूर्व में उठायी गयी या आज उठाई जा रही है, वह मात्र गच्छद्वेष पर ही आधारित है।
संघ आचार्य जिनवल्लभ प्रणीत संघपट्टक की ३३वीं कारिका पर लिखी गयी जिनपतिसूरि की टीका के अपूर्ण वाक्यों को तोड़-मरोड़ कर उसका मनमाना अर्थ धर्मसागर उपाध्याय और २०वीं शती के विद्वान् सागरानन्दसूरि, विजयप्रेमसूरि आदि ने किया है। वस्तुतः चैत्यवासी संघ से जिनवल्लभसूरि बहिष्कृत थे, किन्तु सुविहित संघ के अन्दर और उसके प्रधान थे । ४. पिण्डविशुद्धिकार :- १७वीं शती के तपागच्छीय विद्वान् सोमविजयगणि ने स्वरचित "सेनप्रश्न" में पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता जिनवल्लभ को खरतरगच्छीय जिनवल्लभ से भिन्न माना है । किन्तु सुमतिगण ने गणधर सार्धशतकवृत्ति में जिनवल्लभ की अन्य कृतियों के साथ-साथ पिण्डविशुद्धि का भी उल्लेख किया है जिसका समर्थन धनेश्वरसूरि ने अपनी सार्धशतकटीका में किया है। पिण्डविशुद्धिदीपिका के रचनाकार उदयसिंहसूरि ( ई०स० १२४५ - रचनाकाल ) पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता के लिये “सुविहितसूत्रधार" विशेषण का प्रयोग करते हैं जो निश्चित रूप से जिनवल्लभसूरि के लिये ही है । स्वयं धर्मसागरजी भी अपनी कृति "प्रवचनपरीक्षा" में जिनवल्लभ के लिये यही विशेषण प्रयुक्त करते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता जिनवल्लभ ही हैं। पं० लालचन्दभगवान् गांधी ने स्वसम्पादित अपभ्रंश काव्यत्रयी में भी इसी बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है ।
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यदि हम मान भी लें कि पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि नहीं है तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि वे जिनवल्लभ कौन थे? किस गच्छ के थे? इस प्रश्न का कोई भी उत्तर नहीं है। तत्कालीन ३-४ शताब्दियों में खरतरतगच्छीय जिनवल्लभ को छोड़कर कोई भी ऐसे व्यक्ति की उपलब्धि जैन साहित्य के इतिहास में नहीं दिखाई देती जो पिण्डविशुद्धि का कर्त्ता माना जा सके । अतः यह स्पष्ट है कि पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता जिनवल्लभ नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेवसूरि से पृथक् कोई अन्य आचार्य नहीं हैं ।
इस सम्बन्ध में विस्तार के लिये द्रष्टव्य " वल्लभभारती", पृ० ६२-८४ ।
जिनवल्लभरि के प्रमुख सहपाठी जीवन भर साथ देने वाले जिनशेखर थे| युगप्रधान जिनदत्तसूरि के समय वि०सं० १२०५ के आसपास इनसे शाखा भेद हुआ। ये रुद्रपल्लीय के रहने वाले थे अतः भविष्य में इस परम्परा का इधर ही अधिक विचरण रहने में इस शाखा का आगे यही नामकरण हो गया जो कि खरतरगच्छ की ही एक शाखा है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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