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________________ युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि २७. पहले किसी समय श्री जिनेश्वर सूरि के शिष्य उपाध्याय श्री धर्मदेव उपाध्याय की आज्ञा में रहने वाली विदुषी साध्वियों ने धोलका में चातुर्मास किया था। वहाँ पर क्षपणक-भक्त वाछिग की धर्मपत्नी बाहड़ देवी अपने पुत्र के साथ इन आर्याओं के पास धर्मकथा सुनने को आया करती थी। उस श्राविका का धर्म-प्रेम देखकर साध्वियाँ विशेष रूप से धर्मकथायें सुनाया करती थीं। ये आर्याएँ सामुद्रिक शास्त्र के बल से पुरुष सम्बन्धी शुभाशुभ लक्षण भी जानती थीं। बाहड़ देवी के पुत्र के शरीर में वर्तमान प्रधान-लक्षणों को वे अच्छी तरह से जान गईं। उन लक्षणों का लाभ उठाने के लिए वे श्राविका को बारम्बार समझाती थीं। आर्याओं के कहने-सुनने से वह उनका कथन मान गई और अपने पुत्र को शिष्य बनाने के लिए देने को तैयार हो गई। चातुर्मास समाप्त होने पर आर्याओं ने धर्मदेवोपाध्याय को समाचार दिया कि-"हमने यहाँ पर एक पात्र रत्न पाया है। यदि आपको योग्य लगे तो स्वीकार करें।" संवाद पाते ही धर्मदेवोपाध्याय उत्तम शकुन लेकर शीघ्रातिशीघ्र वहाँ पहुँचे। बालक को देखकर अतीव प्रसन्न हुए। शुभ लग्न, मुहूर्त एवं तिथि देख वि०सं० ११४१ में दीक्षा देकर उस बालक को सोमचन्द्र नाम से अपना शिष्य बनाया। उपाध्याय जी ने नवदीक्षित सोमचन्द्र को श्री सर्वदेव गणि को सौंप दिया और गणिजी से कहा कि-"तुम इसकी देख-रेख करो तथा इसे साधु सम्बन्धी क्रिया-कलापों को सिखाते हुए बहिर्भूमिका आदि के लिए साथ ले जाया करो।" इस बालक का जन्म सं० ११३२ में हुआ था। दीक्षा के समय इसकी अवस्था नौ वर्ष की थी। प्रतिक्रमण सूत्र वगैरह इसने घर पर रहते ही याद कर लिये थे। अशोकचन्द्राचार्य ने इनको बड़ी दीक्षा दी। दीक्षा लेने के बाद, पहले ही दिन सर्वदेव गणि इनको साथ लेकर बहिर्भूमिका के लिए गये। सोमचन्द्र बालक था, अज्ञान दशा थी। इसलिए खेत में से उगे हुए बहुत से चने के पौधों को इसने जड़ से उखाड़ दिया, (ऐसा करना साध्वाचार्य के विपरीत था)। सर्वदेव गणि ने इस अनुचित व्यवहार को देखकर उसे शिक्षा देने के लिए सोमचन्द्र से रजोहरण और मुखवस्त्रिका ले ली और कहा कि-"तुम अपने घर जाओ। दीक्षा लिए बाद साधु को हरी वनस्पति का तोड़ना वनस्पतिकाय की विराधना है।" इस तर्जन-गर्जन को सुनकर बालक सोमचन्द्र बोला-"आप घर जाने के लिए कहते हैं सो तो ठीक, परन्तु पहले मेरे मस्तक पर जो चोटी थी उसे दिला दीजिए, तो लेकर अपने घर चला जाऊँ।" इस उत्तर को सनकर गणि जी को आश्चर्य हआ और मन ही मन कहने लगे-"इस बात का हमारे पास कोई प्रत्युत्तर नहीं है।" इस बात को स्थान पर जाकर गणि जी ने धर्मदेवोपाध्याय से कही। उसे सुनकर उपाध्याय जी ने सोचा-"इन लक्षणों से जाना जाता है कि यह अवश्य ही योग्य होगा।" २८. सोमचन्द्र मुनि पत्तन में सर्वत्र घूम-घूम कर अच्छे-अच्छे विद्वानों से लक्षण पंजिका आदि शास्त्रों को परिश्रम के साथ पढ़ने लगे। एक दिन सोमचन्द्र मुनि स्थानीय भावड़ाचार्य की धर्मशाला में पंजिका पढ़ने जा रहे थे। मार्ग में अन्य मतावलम्बी किसी उद्धत मनुष्य ने कहा-"अरे श्वेताम्बर साधु! यह कपलिका (कँवली-पढ़ने का बस्ता) किस लिए ग्रहण की है?" सोमचन्द्र मुनि ने तत्काल (४०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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