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कृताङ्गीगणभद्रेण, देवभद्रेण सूरिणा। श्रीचित्रकूटदुर्गेऽस्मिन्, सोऽपि सूरिपदे कृतः॥ ३ ॥ किन्तु जिनवल्लभीय प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक पद्य १५९ "ब्रूहि श्रीजिनवल्लभ स्तुतिपदं कीदृविधाः के सताम्?" के उत्तर के रूप में "मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः” प्रदान किया है।
यहाँ जिनेश्वरसूरि के लिए 'मद्गुरवः' और अभयदेवसूरि के लिए 'सत्गुरुवः' शब्दों का प्रयोग है, प्रारम्भिक गुरु चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि थे, उपसम्पदादायक गुरु अभयदेवसूरि थे। जिनेश्वरसूरि के पास ही समस्त प्रकार के साहित्य का अध्ययन कर और उनकी अनुमति से ही अभयदेवसूरि के पास आगमों का अध्ययन किया था और उनकी स्वीकृति से ही उन्होंने अभयदेवसूरि के पास उपसम्पदा ग्रहण की थी। अतः श्रद्धा और भक्ति के कारण जिनेश्वरसूरि को मेरे गुरु के रूप में स्मरण करते हैं तो यह शिष्टाचार का द्योतक है। यहाँ उन्होंने जिनेश्वरसूरि को सद्गुरु से सम्बोधित नहीं किया है। अभयदेवसूरि के पास यदि उन्होंने उपसम्पदा ग्रहण नहीं की होती तो देवभद्राचार्य जैसे गीतार्थ आचार्य उनको कदापि अभयदेव के पट्ट पर स्थापित नहीं करते।
आचार्य जिनेश्वर से प्रारम्भ खरतरगच्छ की मूल परम्परा, समस्त शाखाएँ और उपशाखाएँ एक स्वर से जिनवल्लभ को नवाङ्गीटीकाकार अभयदेवसूरि का ही पट्टधर स्वीकार करती हैं। खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के आचार्य प्रभानन्दसूरि तो ऋषभ पञ्चाशिका टीका की रचना प्रशस्ति में अपनी परम्परा के पूर्वज अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनशेखरसूरि ही मानते हैं।
इस प्रकार यह सिद्ध है कि जिनवल्लभसूरि आचार्य अभयदेव के शिष्य थे और इसमें किसी भी प्रकार की शंका का कोई स्थान नहीं रह जाता है। २. षट्कल्याणक :- प्रत्येक तीर्थंकर के पाँच कल्याणक होते हैं-च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान
और निर्वाण । महावीर का एक अन्य कल्याणक भी होता है वह है गर्भापहार । २४ तीर्थंकरों में केवल महावीर ही ऐसे हैं जिनका जीव पहले ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में आता है, वहाँ से ८२ दिन बाद उनका स्थानान्तरण त्रिशला के गर्भ में होता है। देवानन्दा के गर्भ में जब महावीर का जीव आता है तो वे चौदह स्वप्न देखती हैं। वही जीव जब त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित हो जाता है तो त्रिशला भी चौदह स्वप्न देखती हैं। इस प्रकार गर्भापहरण को मिलाकर कुल ६ कल्याणक महावीर के होते हैं। प्राचीन ग्रन्थकारों-शीलांक, हेमचन्द्र, तपागच्छीय शांतिचन्द्रगणि, पृथ्वीचन्द्रसूरि, विनयचन्द्रसूरि, तपागच्छीय कुलमण्डनसूरि, जयचन्द्रसूरि, सोमसुन्दरसूरि, अंचलगच्छीय धर्मशेखरसूरि के शिष्य उदयसागर, अंचलगच्छीय माणिकऋषि, उपकेशगच्छीय रामतिलक गणि के शिष्य गणपति, अंचलगच्छीय मेरुतुंगसूरि, आगमिकगच्छीय जयतिलकसूरि आदि ने अपनी कृतियों में महावीर के गर्भापहार को भी कल्याणक मान कर उनके ६ कल्याणक स्वीकार किये हैं। अतः इस सम्बन्ध में कोई भी विवाद उठाना निरर्थक है। विशेष अध्ययन के लिये द्रष्टव्य-श्री मणिसागरजी (आचार्य श्री जिनमणिसागरसूरि) लिखित पुस्तक षट्कल्याणक निर्णय नामक पुस्तक।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
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