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________________ उल्लसित, हस्ति-दन्त के समान तथा मुक्तोद, क्षीरोद, क्षीरसमुद्र के झाग, शिव के अट्टहास एवं काश के समान निर्मल यश को चारों दिशाओं में फैलाया। ११४. उसके बाद आपका चौमासा जैन शासनावलंबी संघ के मूल-स्थान-तुल्य देवराजपुर में हुआ। उस चातुर्मास में श्री तरुणप्रभाचार्य और श्री लब्धिनिधान महोपाध्याय को पूज्य महाराजश्री ने महान् तर्क रूपी रत्नों की खान सदृश स्याद्वादरत्नाकर नामक महा तर्क सिद्धान्त का जिसका परिशीलन आपने पहले नहीं किया था, बड़ी सूक्ष्म विचारणा सह उस सिद्धान्त का परिशीलन करवाया। अन्यान्य शिष्य मण्डली अपने-अपने शास्त्राभ्यास में संलग्न थी। इस समय महाराज को ऐसा भान हुआ कि अब मेरा शरीर अधिक दिन नहीं रहेगा। अतः स्वर्गश्री से पाणिग्रहण करने की विधि में इस क्षेत्र को शुद्ध समझ कर चौमासे बाद भी आप वहीं ठहरे। माघ शुक्ल पक्ष में.......... आपके शरीर में प्रबल ज्वर व श्वास की व्याधि ने बाधा खड़ी कर दी। महाराज ने उस व्याधि की स्थिति पर से अपने निर्वाण (देह त्याग) का समय निकट आया समझ कर तरुणप्रभाचार्य और लब्धिनिधान महोपाध्याय को श्रीमुख से आज्ञा दी कि-"मेरे बाद मेरे पाट पर मेरे शिष्यों में प्रधान. पन्द्रह वर्ष की आय वाले सेठ लक्ष्मीधर के पुत्ररत्न, सेठों में प्रधान सेठ आंबाजी की पुत्री साध्वी कीकी के नन्दन, युगप्रधान के गुण रूप लक्ष्मी के क्रीड़ा-लीला स्थान एवं मेरु पर्वत रूप उत्तम नंदन वन के समान सुन्दर आकृति वाले पद्ममूर्ति नामक क्षुल्लक को आचार्य पदार्पण कर पट्टधर बनाना।" ऐसा कह कर सं० १३८९ में फाल्गुन मास की कृष्ण पंचमी को दिन के तीसरे प्रहर सारे संघ को इकट्ठा कर, सबसे क्षमा याचना कर, स्वमुख से चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान कर अनशन स्वीकार किया। नाना प्रकार से आराधना का अमृतपान करते हुए, पंच परमेष्ठी के श्रेष्ठ ध्यान रूपी पाँच सौगन्धिक पदार्थों से मिश्रित ताम्बूलास्वादन से सुरभित मुख वाले आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने दो पहर रात्रि बीतने पर इस असार संसार को त्याग कर स्वर्गरूपी लक्ष्मी से विवाह किया अर्थात् स्वर्गीय देवों की पंक्ति में अपना आसन जा जमाया। इसके बाद विद्युत्गति से यह समाचार फैलते ही विषम काल रूप कालरात्रि के अज्ञानान्धकार को हटाने में चतुर भास्कर, विधि-संघ के परम आधार युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी के अस्त होने से दुःखित अन्त:करण वाले, समस्त सिन्ध देशीय नगर-ग्राम निवासी श्रावकों का वृन्द एकत्रित हुआ। पचहत्तर मण्डपिकाओं से मंडित, सुन्दर चमकीले सुनहले दण्ड से सुशोभित, इन्द्र के निर्याण विमान के सदृश बनवाये गए निर्याण विमान से निर्वाण महामहोत्सव मनाया गया और कपूर, अगर तगर, कस्तूरी, मलयचंदन आदि सुगन्धित पदार्थों से ही दाह-संस्कार किया गया। उनकी दाह-भूमि पर रीहड़ (गोत्रीय) सेठ पूर्णचन्द्र के कुलदीपक सेठ हरिपाल श्रावक ने अपने पुत्र झांझण, यशोधवल आदि सर्व परिवार के साथ एक सुन्दर स्तूप बनवाया। यह स्तूप संघ के समस्त मनुष्यों की दृष्टि को सुधारस की तरह आनन्द देने वाला था। श्री भरत महाराज से बनवाये गये अष्टापद पर्वत के शिखर के शिरोभूषण-इक्ष्वाकु वंशोत्पन्न मुनिश्रेष्ठों के संस्कार भूमि के प्रधान स्तूप के सदृश था। मुस्लिम प्रधान सिन्ध देश के मध्य में बसने वाले श्रावकों के चित्त को अवष्टंभ (आश्रय) देने के लिए एक द्वीप समान था। (१९४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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