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________________ विशेष श्री जिनकुशलसूरि चहुत्तरी-यह प्राकृत रचना श्री तरुणप्रभाचार्य द्वारा ७४ गाथाओं में रचित है। उन्होंने १३६८ में दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा नाम तरुणकीर्ति था। १३८८ में आचार्य पद देकर इनका नाम तरुणप्रभाचार्य रखा गया। इन्होंने चहुत्तरी कृति में लिखा है सर्वप्रथम कल्पवृक्ष के सदृश गुरुवर श्री जिनचन्द्रसूरि और भगवान् पार्श्वनाथ को नमस्कार करके युगप्रधान, अतिशयधारी सद्गुरु श्री जिनकुशलसूरि जी का गुणवर्णन करने का संकल्प करते हुए तरुणप्रभाचार्य महाराज कहते हैं कि मारवाड़ के समियाणा नगर में मंत्रीश्वर देवराज के पुत्र जेल्हागार थे। वे धर्मात्मा थे, उनकी बुद्धि अर्थ और काम के अपेक्षा धर्मध्यान में विशेष गतिशील थी। उसकी शीलवती स्त्री का नाम जयतश्री था जिसकी कुक्षि से वि०सं० १३३७ के मिती मार्गशीर्ष वदि ३ सोमवार के दिन शुभवेला में चन्द्रमादि उच्चस्थान स्थिति समय में पुनर्वसु नक्षत्र में आपका जन्म हुआ। शुभकर्म साधना में सकर्म, लघुकर्मी होने से आपका नाम कर्मणकुमार रखा गया। सं० १३४६ मिती फाल्गुन सुदि ८ के दिन समियाणा के श्री शांतिजिनप्रासाद में श्री जिनचन्द्रसूरि जी के कर-कमलों से आपकी दीक्षा हुई। महोपाध्याय श्री विवेकसमुद्र गणि की चरण सेवा में रहकर आपने विद्याध्ययन किया और विद्यारूपी स्वर्णपुरुष की सिद्धि की। उस स्वर्णपुरुष के व्याकरण रूपी दो चरण, छंद-जानु, काव्यालंकार-उरुसंधि, नाटक रूपी-कटिमंडल, गणित-नाभि संवत, ज्योतिष-निमित्त-गर्त, धर्म-शास्त्र रूपी-हृदय, मूल श्रुत स्कंध-बाहु, छेदसूत्र-हाथ, छहतर्क-उत्तमांग आदि अंगोपांग थे। गुण श्रेणी रूप शिव-निसेणी पर आरुढ़ होकर मिथ्यात्व पट को देशना शक्ति से फाड़ डाला। उच्च चरित्र के प्रभाव से कषायों को उपशांत किया। ब्रह्मचर्य रूपी तीर से काम सेनापति का हनन कर डाला। अध्यवसान चक्रधारा से मोहराज को निप्तकर जय-जयकार कीर्ति पताका दशोदिशि में प्रसारित की। गुरुवर्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने चरित्रनायक की योग्यता से प्रभावित होकर सं० १३७५ मिती माघ सुदि १२ के दिन नागपुर के जिनालय में बड़े भारी संघ के मेले में चरित्रनायक को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया। तत्पश्चात् विक्रम सं० १३७७ मिती ज्येष्ठ कृष्णा ११ गुरुवार को गुरुनिर्देशानुसार पाटण नगर के शांतिनाथ जिनालय में आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि ने युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि जी के पट्ट पर इनको स्थापित करके जिनकुशलसूरि नाम प्रसिद्ध किया। इन्होंने महातीर्थ शत्रुजय के शिखर पर मानतुंग प्रासाद में ऋषभदेव स्वामी की; शत्रुजय, अणहिलपुर, जालोर, देरावर आदि अनेक स्थानों में जिन बिम्बों की तथा जैसलमेर में मूलनायक की स्थापना की। श्रीमाल श्रेष्ठी रयपति के संघ सहित शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा की। फिर ओसवाल वंश-शुक्ति-मौक्तिक साहु वीरदेव के साथ भी शत्रुजयादि की वंदना की। गुर्जर, मारवाड़, सिंध, सवालक्षादि देशों में विचरकर दीक्षा, मालारोपण, श्रावक-व्रतारोपण आदि द्वारा स्थान-स्थान में धर्म की प्रभावना की। वे सर्व विद्याओं के ज्ञाता थे, स्याद्वाद, न्यायशास्त्रादि दो बार शिष्यों को संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (१९५) ___Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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