________________
श्रावकों के प्रबल अनुरोध से श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज वहाँ से चले। मार्ग में ग्रामानुग्राम अनेक श्रावकों के झुण्ड को लिये हुए, महाराज के शुभागमन से प्रफुल्लित होते नाना ग्रामों के श्रावक समुदाय की वन्दना स्वीकार करते हुए, ढोल-ढमाके के साथ महाराज ने परशुरोर कोट नगर में प्रवेश किया। प्रवेश के समय सुन्दर वस्त्र-आभरणों से सुसज्जित अनेक नर-नारी महाराज के सम्मुख आये थे। वहाँ पर कुछ दिन तक अपने सदुपदेशों से श्रावक समुदाय का हित साधन कर महाराज श्री बहिरामपुर आये। वहाँ पर भगवान् पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में भक्ति से गद्-गद् होकर वन्दना की। कुछ दिन निवास कर पहले की तरह जिनशासन को खूब प्रभावित किया और वहाँ से विहार कर क्यासपुर आदि नगरों तथा ग्रामों में, ग्राम में एक तथा नगर में पाँच, इस रीति से रात्रियाँ बिता कर भव्यजनों के उपकार के लिए चौमासी तिथि पर श्रेष्ठ नगर देवराजपुर आये और श्री ऋषभदेव भगवान् के चरणों में आदर, श्रद्धा-भक्ति परिपूर्ण हृदय से वंदन किया।
११३. इसके बाद संवत् १३८८ में विमलाचल शिखर के अलंकारहारसम श्रीमानतुंग-विहार के श्रृंगार श्री प्रथम तीर्थंकर आदि जिनेश्वरों की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, स्थापना, व्रत-ग्रहण, मालारोपण आदि धार्मिक कार्य सूरिजी ने करवाये। महाराज ने देश-विदेशों में भ्रमण कर ऐसे-ऐसे अनेक कार्य करवाये थे जिनके कारण सूरीश्वर का गोक्षीर-काच-कपूर के समान धवल यश त्रिलोकी में फैल गया था। बढ़े हुए श्रेष्ठ ज्ञान-ध्यान के बल से समय की अनुकुलता-प्रतिकूलता को पहिचान कर महाराज कार्य करते थे। अपने भुजबल से अर्जित ज्ञान बल से भक्त वृन्द के मनोरथ पूर्ण करने में देवद्रुम-कल्पवृक्ष को भी पराजित कर दिया था। सब समुदायों ने सुवर्णतिलक के समान उच्चापुरीय, बहिरामपुरीय, कयासपुरीय, सिलार वाहणीय आदि नाना नगर ग्राम निवासी विधि समुदाय तथा समस्त सिन्धु देश के श्रावक समुदायों के मेल में मिगसर सुदि दशमी के दिन पद-स्थापन, व्रत-ग्रहण, मालारोपण, सामायिक-ग्रहण, सम्यक्त्व-धारण आदि नन्दि महोत्सव बड़ी धूमधाम से किया। इसमें नाच-गान, खेल-कूद, तमाशे खूब ही करवाये गये और श्रीसंघ की पूजा, साधर्मी भाइयों को मनोवांछित भोजन तथा गरीबों को दान आदि कार्य धनी-मानी भाइयों की ओर से मुक्त हस्त होकर किये गये। भावी क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं को पुष्पांक दान देकर सम्मानित किया गया। उसी महोत्सव में गांभीर्य, औदार्य, धैर्य, स्थैर्य, आर्जव, विद्वत्ता, कवित्व, वाग्मित्व, साहित्य, ज्ञानदर्शन-चारित्र आदि छत्तीस सूरि गुणों की खान पं० तरुणकीर्ति गणि जी को आचार्य पद प्रदान किया गया और "तरुणप्रभाचार्य" यह नया नाम रखा गया और पं० लब्धिनिधान गणि जी को "अभिषेक' (उपाध्याय) पद दिया गया तथा लब्धिनिधानोपाध्याय इस प्रकार नाम परिवर्तन किया गया। इसी अवसर पर दो क्षुल्लक और दो क्षुल्लिकाएँ भी हुई, जिनके नाम जयप्रिय मुनि, पुण्यप्रिय मुनि तथा जयश्री व धर्मश्री रखे गये व त्रयोदश श्राविकाओं ने माला-ग्रहण की। अनेक श्रावकश्राविकाओं ने परिग्रह-परिमाण, सामायिक-ग्रहण एवं सम्यक्त्व-धारण की सफलता के लिए नन्दि महोत्सव भी किया। इस प्रकार पूज्य आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने अपने जीवनकाल में अनेक ग्राम-नगरों में विचरते हुए अपने पुरुषार्थ से समुपार्जित निर्निदान ज्ञानादि दान देने से
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
(१९३)
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org