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शत्रुजय गिरिराज दर्शन के एक लेख (लेखांक ११४) में श्रीमद् देवचन्द्र जी ने स्वयं को अकबर प्रतिबोधक आचार्य जिनचन्द्रसूरि की बृहद् खरतरगच्छीय परम्परा का बतलाया है जब कि शत्रुजय के ही एक अन्य लेख (लेखांक १२४) में स्वयं को आचार्यशाखा का बतलाया है। इसका कारण स्पष्ट है। युगप्रधान आचार्य जिनचन्द्रसूरि के पौत्र शिष्य जिनराजसूरि के समय (वि०सं० १६७६) में इस परम्परा के जिनसागरसूरि से आचार्यशाखा या लघु आचार्यशाखा की स्थापना हुई। इस परम्परा में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की विभिन्न शिष्य सन्तति (महो० समयसुन्दर, वाचनाचार्य पुण्यप्रधान आदि) के अनेक गीतार्थ साधु भी इनकी आज्ञा से आ गये। यही कारण है कि वाचनाचार्य पुण्यप्रधान की परम्परा आचार्य शाखा की अनुगामी हो गई, जिनमें श्रीमद् देवचन्द्र जी भी थे।
ऐसा कहा जाता है कि देवचन्द्र जी को सरस्वती प्रत्यक्ष थीं। इनकी शिक्षा गुरु दीपचन्द्र जी की देख-रेख में हुई। आपने जैन आगम, महाभाष्य आदि सम्पूर्ण व्याकरण, काव्य, नाटक, ज्योतिष, १८ कोश, छन्दशास्त्र, कर्म साहित्य आदि के साथ-साथ आचार्य हरिभद्रसूरि और यशोविजय जी के सम्पूर्ण साहित्य का भी गहन अध्ययन किया। विशाल अध्ययन के फलस्वरूप आपका प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी एवं मरु-गूर्जर भाषा पर असाधारण अधिकार हो गया। अपने गुरु के साथ-साथ इन्होंने मुल्तान, सिन्ध, बीकानेर, शत्रुजय, गिरनार, लिम्बडी, सूरत, खम्भात, नवानगर, अहमदाबाद, पाटन, भावनगर आदि अनेक स्थानों एवं वहाँ स्थित तीर्थों की यात्रा की। आपकी ही प्रेरणा से वि०सं० १७८० के आस-पास शत्रुजय महातीर्थ पर वहाँ जीर्णोद्वार एवं अन्य व्यवस्थाओं के लिए एक कारखाना स्थापित किया गया जो आगे चलकर आनन्द जी कल्याण जी की पेढ़ी के रूप में आज भी विद्यमान है। शत्रुजय तीर्थ एवं जीर्णोद्धार के कार्यों में आपकी लगन ऐसी थी कि अपने अंतिम समय तक
आप शत्रुजय, गिरनार, लिम्बडी, सूरत, खम्भात, नवानगर, अहमदाबाद आदि क्षेत्रों में ही विचरे। वि०सं० १७७७ में आपने क्रियोद्धार किया और इसी के पश्चात् अहमदाबाद स्थित शांतिनाथ पोल के भूमिगृह से सहस्रफणा पार्श्वनाथ आदि विभिन्न जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करायी। वि०सं० १८०८ में आपके उपदेश से शत्रुजय की यात्रा हेतु एक संघ भी निकला था। आपकी प्रेरणा से लिम्बडी, खम्भात, बढवाण, शत्रुजय आदि अनेक स्थानों पर चैत्यों का निर्माण हुआ एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठायें हुईं। वि०सं० १९१२ में अहमदाबाद में आपका निधन हुआ। यहाँ हरिपुरा के मंदिर के मुख्य द्वार के सामने स्थित उपाश्रय में आपके चरण स्थापित हैं।
श्रीमद् देवचन्द्र द्रव्यानुयोग के विशेष ज्ञाता और आत्मसाधक योगी थे। गच्छ कदाग्रह से पूर्ण रूप से मुक्त थे। मुक्त हृदय से विद्यादान देते थे। उस समय के साधुओं में प्रखर विद्वान् माने जाने वाले श्री जिनविजय जी, उत्तमविजय जी तथा विवेकविजय जी ने श्रीमद् के पास भक्तिपूर्वक विशेषावश्यक महाभाष्यादि गहन शास्त्रों का अध्ययन किया था। श्री उत्तमविजय जी ने श्री जिनविजय निर्वाण रास में उल्लेख किया है : "महाभाष्य अमृत लह्यो, देवचन्द्र गणी पास।"
श्रीमद् देवचन्द्र द्वारा रचित साहित्य को विषय के अनुसार ४ भागों में बाँटा जा सकता है
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
(३०७)
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