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भिन्न-भिन्न तिथियाँ मिलती हैं किन्तु उनमें से एक तिथि (वि०सं० १०८०) तो दुर्लभराज के निकटतम ही है। दुर्लभराज का शासन वि०सं० १०७६ तक ही रहा और उत्तरकालीन पट्टावलियाँ, जो गीतार्थ परम्परा पर ही आधारित हैं, यदि उनमें दो-चार वर्ष का अन्तर है तो वह सामान्य बात ही है। प्राचीन पट्टावलियों में शास्त्रार्थ की तिथि नहीं दी गयी है किन्तु शास्त्रार्थ और उसमें विजय प्राप्त होने की स्पष्ट चर्चा है अतः यह सुनिश्चित है कि शास्त्रार्थ हुआ और उसमें जिनेश्वरसूरि का पक्ष सबल रहा। चैत्यवास विरोधी यह संगठन उस समय सुविहितमार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आगे चलकर जिनवल्लभसूरि एवं जिनदत्तसूरि अपने कठोर आचार के कारण विशेष विख्यात हुए और इनके समय में यह परम्परा विधिमार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुई और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है यही विधिमार्ग शनैः शनैः खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुआ। इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्धमानसूरि एवं जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रवर्तित सुविहितमार्गीय आन्दोलन उत्तरकाल में खरतरगच्छ के रूप में हमारे सामने आया।
खरतरगच्छीय परम्परा एक स्वर से वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव आदि को खरतरगच्छीय स्वीकार करती है। विभिन्न विद्वानों ने इस पर शंका प्रकट की है और कहा है कि इस समय तक खरतरगच्छ शब्द ही प्रचलन में नहीं आया था। यह सत्य है कि इस समय खरतर शब्द का प्रचलन नहीं रहा किन्तु जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं खरतर शब्द से पहले इसके लिये सुविहितमार्ग एवं विधिमार्ग जैसे शब्द प्रचलित रहे और वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव आदि को सभी विद्वान् सुविहितमार्गीय ही बतलाते हैं। स्वयं खरतरगच्छीय परम्परा भी उन्हें अपना पूर्वज मानती है और कोई भी अन्य परम्परा स्वयं को इनसे सम्बद्ध नहीं करती अतः यह स्पष्ट है कि वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव खरतरगच्छीय नहीं अपितु खरतरगच्छीय जिनवल्लभ, जिनदत्त, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि के पूर्वज अवश्य थे और ऐसी स्थिति में उत्तरकालीन मुनिजनों द्वारा अपने पूर्वकालीन आचार्यों को अपने गच्छ का बतलाना स्वाभाविक ही है।
श्वेताम्बर परम्परा में जैनदर्शन का सर्वप्रथम ग्रन्थ प्रमालक्ष्म-स्वोपज्ञवृत्तिसह जिनेश्वरसूरि द्वारा ही रचित है। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में ही सर्वप्रथम व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ बुद्धिसागरव्याकरण बुद्धिसागरसूरि द्वारा रचित है। ___आचार्य जिनेश्वरसूरि के ख्यातिनाम शिष्यों में संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि, नवाङ्गटीकाकार अभयदेवसूरि, सुरसुन्दरीचरित्रकार धनेश्वरसूरि, अपरनाम जिनभद्रसूरि, हरिभद्रसूरि, धर्मदेवगणि, सुमतिगणि, सहदेवगणि, विमलगणि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
जिनेश्वरसूरि का निधन वि०सं० ११०८ के पश्चात् और ११२० के पूर्व सुनिश्चित है।
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संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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