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___ उक्त नियमों का चैत्यवासी मुनिजन सर्वथा उल्लंघन कर रहे थे। आचार्य हरिभद्रसूरि (८वीं शती) ने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में इन चैत्यवासी मुनिजनों की कटु आलोचना की है।
आगे की शताब्दियों में तो चैत्यवास का स्वरूप और भी विकृत होता गया। श्वेताम्बर समाज में ऐसे मुनिजनों का बाहुल्य हो गया जो सदैव चैत्यों में रहते थे, इसी कारण ये चैत्यवासी कहलाने लगे। समाज में इनका अत्यन्त प्रभाव था। किन्तु जैन शास्त्रों में वर्णित निर्ग्रन्थ मुनि के आचारों से उनका जीवन पूर्णतः असंगत हो गया था। ऐसे ही मुनिजनों ने सुविहितमार्गीय वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि का पाटण में प्रवेश करने पर सशक्त विरोध किया था जिन्हें जिनेश्वरसूरि ने दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरभूमि को सुविहितमार्गीय मुनिजनों के लिये खोल दिया। खरतरविरुद एवं शास्त्रार्थ का समय :
आचार्य वर्धमानसूरि की अध्यक्षता में उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि ने चैत्यवास के विरुद्ध जो आन्दोलन चलाया वह मुख्यरूप से चैत्यवासियों के उन्मूलन का आन्दोलन था। उनकी यह विचारधारा हमें उनके एवं उनके शिष्यों द्वारा रचित विभिन्न ग्रन्थों में दिखाई देती है। तत्कालीन अन्य ग्रन्थकारों ने भी इसका उल्लेख किया है।
वर्धमानसूरि एवं जिनेश्वरसूरि द्वारा आरम्भ किये गये चैत्यवास विरोधी आन्दोलन / क्रांति को उनके अनुयायी जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, देवभद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि ने अपने-अपने ढंग से जारी रखा, परिणाम स्वरूप चैत्यवास की परम्परा १३वीं शताब्दी के अन्त तक नष्टप्रायः हो गयी।
प्रारम्भ में आचार्य वर्धमानसूरि एवं जिनेश्वरसूरि से उद्धृत इस शास्त्रोक्त परम्परा को सुविहितमार्ग नाम प्राप्त हुआ। अभयदेवसूरि तक प्रायः यही नाम प्रचलित रहा। आगे जिनवल्लभसूरि एवं जिनदत्तसूरि के समय यह परम्परा विधिमार्ग के नाम से जानी गयी और यही आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
खरतरगच्छीय परम्परा के अनुसार चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासियों के प्रमुख आचार्य सूराचार्य से शास्त्रार्थ में विजयी होने पर राजा ने जिनेश्वरसूरि को खरतर उपाधि प्रदान की और उनकी शिष्यसन्तति खरतरगच्छीय कहलायी। दुर्लभराज ने जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद् प्रदान किया हो अथवा नहीं किन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि शास्त्रार्थ में उनका पक्ष सबल अर्थात् खरा सिद्ध हुआ और उसी समय से सुविहितमार्गीय मुनिजनों के लिये गूर्जर भूमि विहार हेतु खुल गया। मुनि जिनविजय आदि विभिन्न विद्वानों ने भी इस बात को स्वीकार किया है।
कुछ अर्वाचीन विद्वानों ने यह शंका प्रकट की है कि पट्टावलियों में शास्त्रार्थ सम्बन्धी जो भिन्न-भिन्न तिथियाँ मिलती हैं उस समय यहाँ दुर्लभराज का शासन ही नहीं था अतः शास्त्रार्थ की चर्चा निरर्थक है। यह सत्य है कि उत्तरकालीन खरतरगच्छीय पट्टावलियों में शास्त्रार्थ सम्बन्धी (१२)
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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