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________________ विशेष जिनेश्वर एवं बुद्धिसागरसूरि प्रभावकचरित के अनुसार आचार्य जिनेश्वर और बुद्धिसागरसूरि मध्यदेश के निवासी और कृष्ण नामक एक ब्राह्मण के पुत्र थे। इनका बचपन का नाम श्रीधर और श्रीपति था। दोनों ही भाई बड़े प्रतिभावान थे। इन्होंने अल्पवय में ही ब्राह्मणीय परम्परा के अनेक धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया और देशाटन हेतु घूमते-घूमते धारा नगरी के श्रेष्ठी लक्ष्मीधर के यहाँ पहुँचे । श्रेष्ठी इनकी विद्वत्ता से अत्यधिक प्रभावित हुआ। एक बार श्रेष्ठी के घर आग लग जाने से उसका दीवारों पर लिखा हिसाब-किताब भी नष्ट हो गया। भ्राताद्वय ने अपनी तीव्र स्मरणशक्ति से पुनः उक्त हिसाब-किताब को बतलाकर अपनी विद्वत्ता और उपादेयता सिद्ध कर दी। इस घटना से प्रभावित हो उक्त श्रेष्ठी इन्हें और भी ज्यादा सम्मान देने लगा। श्रेष्ठी लक्ष्मीधर ने ही आचार्य वर्धमानसूरि से इनकी भेंट करायी। वर्धमानसूरि के तप और तेज से ये दोनों भाई अत्यन्त प्रभावित हुए और अन्ततः उनसे दीक्षित होकर जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि के नाम से विख्यात हुए। गुरु की प्रेरणा से ये सुविहितमार्ग का प्रचार करते हुए अणहिल्लपुरपाटन पहुंचे जहाँ चैत्यवासियों के साथ दुर्लभराज की राजसभा में इनका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें इनका सुविहितपक्ष सबल सिद्ध हुआ। चैत्यवास : जैन मुनिजनों का मुख्य कर्त्तव्य है केवल आत्मकल्याण में लीन रहना, इसके लिये उन्हें शम, दम, तप आदि शास्त्रोक्त नियमों का पालन करना अनिवार्य है। जीवनयापन के लिये उन्हें भिक्षा में जो कुछ भी रूखा-सूखा आहार प्राप्त हो जाये और वह भी शास्त्रोक्त विधि से, उसे ही ग्रहण करना। भिक्षा के अतिरिक्त उन्हें श्रावकों से किसी प्रकार का संसर्ग रखना वर्जित था। वर्षाऋतु के अतिरिक्त उन्हें एक स्थान पर रहना भी निषिद्ध है। जैन सूत्रों में जैन मुनि को निम्नलिखित बातों का पालन करना अनिवार्य था१. सर्व प्रकार के परिग्रह का त्याग। २. किसी भी स्थान पर स्थायी रूप से न रहना। ३. मधुकरी वृत्ति से ४२ दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करना। ४. ब्रह्मचर्य का पालन करना। ५. स्त्री-पशु रहित स्थान में ठहरना । ६. अंगराग, ताम्बूल, तेल आदि का प्रयोग न करना। ७. किसी प्रकार का व्यापार न करना और न ही उससे प्राप्त धन रखना। ८. क्षमा, लघुता आदि दशविध यतिधर्म का पालन करना । संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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