________________
साध्वियों के साथ मरुदेवी नाम वाली गणिनी आई हुई थीं। उसने वहाँ चालीस दिन का संथारा लिया था। श्रीजिनेश्वरसूरि जी ने समाधिकाल में संलेखना पाठ सुनाया और कहा था-"आर्ये! इस शरीर को त्याग कर दूसरे भव में आप जहाँ उत्पन्न हों, वह स्थान हमें बतला दीजियेगा।" उसने भी कहा-"अवश्य निवेदन करूँगी।" पंच परमेष्ठी का ध्यान करती हुई वह स्वर्ग को सिधार गई। वहाँ से परमर्द्धिक देवलोक में उत्पन्न हुई। उन्हीं दिनों एक श्रावक युगप्रधान आचार्य का निश्चय करने के लिए उज्जयन्त पर्वत के शिखर पर जाकर उपवास करने लगा। उसकी यह प्रतिज्ञा थी कि जब तक कोई भी देवता मुझे युगप्रधान नहीं बतला देगा, तब तक मैं निराहार रहूँगा। सौभाग्य से उन्हीं दिनों ब्रह्मशान्ति नामक यक्ष, जो भगवान् का परिचारक था-तीर्थंकर वन्दना के लिये महाविदेह क्षेत्र में गया था। वहाँ पर देवरूप धारिणी मरुदेवी ने उसके द्वारा जिनेश्वरसूरि जी के पास यह संदेश भेजा
मरुदेवि नाम अज्जा गणिणी जा आसि तुम्ह गच्छंमि। सग्गंमि गया पढमे, देवो जाओ महिड्डीओ॥ टक्कलयंमि विमाणे दुसागराओ सुरो समुप्पन्नो। समणेस-सिरिजिणेसरसूरिस्स इमं कहिज्जासु॥ टक्कउरे जिणवंदण-निमित्तमिहागएण संदिटुं ।
चरणंमि उजमो भे कायव्वो किं व सेसेसु॥ [आपके गच्छ में जो मरुदेवी नामक गणिनी आर्या थी, वह प्रथम स्वर्ग में जाकर महर्धिक देव हुई है। वह टक्कल नामक विमान में है और दो सागर आयुष्य के परिमाण से उत्पन्न हुई है। मुनीन्द्र जिनेश्वरसूरि को यह समाचार मेरी ओर से कह देना और कहना कि महर्द्धि देव देहधारिणी मरुदेवी जिन वन्दना के लिये टक्कलपुर में आई थी, वहाँ पर संदेश दिया है कि आप चारित्र के लिए अधिक से अधिक उद्यम करें। शेष अन्य कार्यों से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।]
उस ब्रह्मशान्ति नामक यक्ष ने यह संदेश जिनेश्वरसूरि को नहीं सुनाया, किन्तु गिरनार पर्वत के शिखर पर युग-प्रधान का निश्चय करने के लिये उपवास करने वाले उस श्रावक को उठाया और उसके पहनने के वस्त्र पर म.स.ट.स.ट.च. ये अक्षर लिख दिये और कहा कि पाटन में जाओ और वहाँ पर जिस आचार्य के हाथ से धोने पर ये अक्षर मिट जायें, उसी को युगप्रधान आचार्य समझ लेना। वह श्रावक वहाँ से चलकर पाटन आया और अनेक उपाश्रयों में गया तथा अनेक आचार्यों को वे अक्षर दिखाये किन्तु उनके तात्पर्य को कोई भी नहीं जान सका। बाद में सौभाग्यवश वह उस उपाश्रय में पहुँचा जहाँ जिनेश्वरसूरि विराज रहे थे। सूरिजी ने उन अक्षरों को बाँच कर जान लिया कि तीन गाथाओं के ये आदि अक्षर हैं। फिर उनको वस्त्र पर से धो दिया और संदेश के रूप में मरुदेवी की कही हुई तीनों गाथाएँ ज्यों की त्यों लिख दीं। इस बात को देखकर उसको यह निश्चय हो गया कि ये ही युगप्रधान आचार्य हैं और मुख्य रूप से उनको अपना गुरु स्वीकार किया। इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रदर्शित धर्म को अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार से प्रदीप्त करके श्री जिनेश्वरसूरि जी देवलोक पधार गये।
(१०)
खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International 2010_04