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को दीक्षा देकर अपने शिष्य बनाये । इन्हीं दिनों वर्धमानसूरि जी का शरीर वृद्धावस्था के कारण शिथिल हो गया था । अतः आबू तीर्थ में सिद्धान्त विधि से अनशन लेकर देवगति को प्राप्त हुए ।
६. तत्पश्चात् जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र और अभयदेव को गुणपात्र जानकर सूरि पद से विभूषित किया और वे श्रमण धर्म की विशिष्ट साधना करते-करते क्रम से युगप्रधान पद पर आसीन हो गये । धनेश्वर जिनका जिनभद्र नाम था - को तथा हरिभद्र को सूरिपद और धर्मदेव, सुमति, विमल इन तीनों को उपाध्याय पद से अलंकृत किया। धर्मदेवोपाध्याय और सहदेव गणि ये दोनों भाई थे । धर्मदेव उपाध्याय ने हरिसिंह और सर्वदेव गणि को एवं पण्डित सोमचन्द्र को अपना शिष्य बनाया। सहदेव गणि ने अशोकचन्द्र को अपना शिष्य बनाया, जो गुरुजी का अत्यन्त प्रिय था । उसको जिनचन्द्रसूरि ने अच्छी तरह शिक्षित करके आचार्य पद पर आरुढ़ किया । इन्होंने अपने स्थान पर हरिसिंहाचार्य को स्थापित किया । प्रसन्नचन्द्र और देवभद्र नामक दो सूरि और थे। इनमें देवभद्रसूरि सुमति उपाध्याय के शिष्य थे। प्रसन्नचन्द्र आदि चार शिष्यों को अभयदेवसूरि जी ने न्याय आदि शास्त्र पढ़ाये थे । इसीलिए जिनवल्लभगणि ने चित्रकूटीय प्रशस्ति में लिखा है
सत्तकं न्यायचर्चार्चितचतुरगिरः श्रीप्रसन्नेन्दुसूरिः, सूरिः श्रीवर्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनीड्देवभद्रः । इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवसकलभुवः सञ्चरिष्णूरुकीर्तिः, स्तम्भायन्तेऽधुनापि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः ॥
[जिन आचार्य अभयदेवसरि जी के शिष्य उत्तम तर्क न्याय व चर्चा से विभूषित चतुर वाणी वाले, सर्वविद्यारूपी समुद्र को पी लेने में अगस्त्य ऋषि की तुलना में आने वाले, सर्वत्र विस्तारित होने वाली महान् कीर्ति वाले और श्रुत व चारित्र की लक्ष्मी से शोभित होने वाले आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरि, आचार्य श्री वर्धमानसूरि यतिपति, हरिभद्रसूरि व मुनीश देवभद्रसूरि आदि अनेकों आज भी शासन रूपी प्रासाद के स्तंभतुल्य हैं ।]
७. श्री जिनेश्वरसूरि वहाँ से विहार करके आशापल्ली नामक नगरी में गये । वहाँ आपके कई दिन व्याख्यान हुए । व्याख्यान में बड़े-बड़े विचक्षण पुरुष उपस्थित हुआ करते थे । वहाँ पर महाराज ने अनेक अर्थों एवं वर्णन से संयुक्त वैदुष्यपूर्ण लीलावतीकथा नामक ग्रन्थ की रचना की । वहाँ से डिण्डियाणा' ग्राम में गये। आपके पास अधिक पुस्तकें नहीं थीं, इसलिए गाँव के निवासी चैत्यवासी आचार्यों से व्याख्यानार्थ पुस्तकें माँगी । उन चैत्यवासियों का अन्तःकरण ईर्ष्या-द्वेष से मलिन था, अतः उन्होंने पुस्तकें नहीं दी। जिनेश्वरसूरि दिन के उत्तरार्ध में रचना करते और प्रातःकाल व्याख्यान करते। चातुर्मास में कथावाचकों के हितार्थ कथाकोश की रचना की। उन दिनों उसी ग्राम में कुछ
१. वर्तमान में इसे डीडवाणा कहते हैं। जो जोधपुर के पर्वतसर डिवीजन में है ।
२. सिंघी जैन ग्रन्थमाला से मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित स्वोपज्ञ वृत्ति सह प्रकाशित हो चुकी है।
१. टि०पृ० १६१ - १६६
१. विशेष अध्ययन करने के लिए देखें महोपाध्याय विनयसागर लिखित वल्लभभारती ।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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(९) www.jainelibrary.org