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________________ आओ। महाराज! कह आता हूँ। ऐसा कह कर वह तुरन्त रानी के समीप गया और राजा का प्रयोजन उससे निवेदन किया। उसने उस समय वहाँ अनेक उक्त प्रकार की भेंट लेकर बैठे हुए बड़ेबड़े अधिकारियों को उपस्थित देखकर सोचा कि यह तो हमारे देश से आये हुए आचार्यों को निकालने का उपाय सोचा जाना प्रतीत होता है। अतः मुझे भी उनका कुछ पक्ष पोषण करने के लिए राजा से कहना चाहिए। ऐसा विचार करता हुआ वह राजा के पास पहुँचा और बोला-"महाराज ! आपका सन्देश रानी को निवेदन कर दिया है, किन्तु महाराज! मैंने वहाँ पर एक बड़ा कौतुक देखा।" राजा ने पूछा-"भद्र! सो कैसा?" सेवक ने कहा-"रानी अर्हद स्वरूप हो रही है। जैसे अर्हद् भगवान् की प्रतिमा के आगे बलि-पूजा-रचना की जाती है, उसी प्रकार महारानी के आगे भी अधिकारियों ने पूजा-सामग्री का ढेर लगा रखा है। तरह-तरह के भूषण-वसन भेंट चढ़ाये जा रहे हैं।" यह सुनकर राजा समझ गया कि-जिन न्यायवादी मुनियों को मैंने गुरु रूप में स्वीकार किया है, उनका दुष्ट लोग अब भी पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। राजा ने उसी संवाददाता पुरुष को शीघ्र रानी के पास भेजकर कहलवाया-"तुम्हारे सामने इन लोगों ने जो भेंट धरी है, उसमें से यदि तुमने एक सुपारी भी ले ली है तो तुम मेरी नहीं और मैं तुम्हारा नहीं-अर्थात् तुम्हारा हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा। तुम तुम्हारे हम हमारे।" राजा का यह आदेश सुनकर रानी भयभीत हुई और बोली"जो पुरुष जो वस्तु लाया है, उसे अपने घर ले जाये। मुझे इन वस्तुओं से कोई प्रयोजन नहीं है।" इस प्रकार उन विपक्षियों का यह प्रयत्न भी निष्फल हुआ। ४. फिर उन्होंने चौथा उपाय सोचा कि-"यदि राजा विदेशी मुनियों को बहुत अधिक मानेगा तो हम सब देवस्थानों को शून्य छोड़कर विदेशों में चले जावेंगे।" यह समाचार किसी ने राजा के पास पहुँचा दिया। राजा ने स्पष्ट कहा कि-"यदि उन्हें यहाँ रहना पसन्द नहीं है तो वे खुशी से जा सकते हैं।" वे लोग झुंझलाकर वहाँ से निकल गये। उनके जाने के बाद देव-मन्दिरों में पूजा के लिए ब्राह्मणों को पुजारी बनाकर रख लिया गया। वे चैत्यवासी यति-जन घटनाचक्र के वश हो देव मन्दिरों को छोड़कर चले तो गये, किन्तु मन्दिरों से बाहर रहने में उन्हें बड़ी कठिनता प्रतीत होने लगी। खान, पान, स्थान, यान, आसन, आभूषण आदि वैभव-सुख-उपभोग के वे इतने परवश (दास) हो चुके थे कि मन्दिरों के बिना उनके सारे आनन्द में इतनी महती बाधा उपस्थित हो गई, जिसको वे किसी प्रकार भी नहीं सह सके और मानापमान का त्याग करके वे लोग भिन्न-भिन्न बहानों से एक-एक करके सब ही वापिस मन्दिरों में आकर रहने लग गए। ५. श्रीवर्धमानसूरि भी राज-सम्मानित होकर अपने शिष्य परिवार सहित उस देश में सर्वत्र विचरण करने लगे। अब कोई भी किसी प्रकार से इनके सामने बोलने की क्षमता नहीं रखता था। इसके बाद श्री जिनेश्वरसूरि की योग्यता और विद्वत्ता देखकर शुभ लग्न में उन्हें अपने पाट पर स्थापित किया और उनके भाई बुद्धिसागर को आचार्य पद दिया एवं उनकी बहिन कल्याणमति को श्रेष्ठ "महत्तरा" पद दिया गया। इसके पश्चात् उसी तरह ग्राम-ग्रामान्तरों में विचरण करते हुए आचार्य जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभद्र, प्रसन्नचंद्र, धर्मदेव, सहदेव, सुमति आदि अनेकों (८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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