SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भवति नियतमेवासंयमः स्याद्विभूषा, नृपतिककुद! एतल्लोकहासश्च भिक्षोः। स्फुटतर इह सङ्गः सातशीलत्वमुच्चै-रिति न खलु मुमुक्षोः सङ्गतं गब्दिकादि॥ [मुमुक्षु को गादी आदि का उपयोग करना योग्य नहीं है। यह तो शृङ्गार की एक चीज है, जिससे अवश्य ही असंयम-मन का चांचल्य होता है। इससे लोक में साधु की हँसी होती है। यह स्पष्टतया आसक्तिकारक है और इससे अत्यंत सुखशीलता बढ़ती है। इसलिए "हे राजन् ! इसकी हमें आवश्यकता नहीं है।"] ___इस प्रकार इस पद्य का अर्थ राजा को सुनाया। राजा ने पूछा-"आप कहाँ निवास करते हैं?" सूरिजी ने कहा-"महाराज ! जिस नगर में अनेक विपक्षी हों, वहाँ स्थान की प्राप्ति कैसी?" उनका यह उत्तर सुनकर राजा ने कहा-''नगर के करडि हट्टी नामक मुहल्ले में एक वंशहीन पुरुष का बहुत बड़ा घर खाली पड़ा है, उसमें आप निवास करें।" राजा की आज्ञा से उसी क्षण वह स्थान प्राप्त हो गया। राजा ने पूछा-"आपके भोजन की क्या व्यवस्था है?" सूरिजी ने उत्तर दिया-"महाराज ! भोजन की भी वैसी ही कठिनता है।" राजा ने पूछा-"आप कितने साधु हैं?" सूरिजी ने कहा"अठारह साधु हैं।" राजा ने पुनः कहा-"एक हाथी की खुराक में आप सब तृप्त हो सकेंगे?" तब सूरिजी ने कहा-"महाराज! साधुओं को राजपिण्ड कल्पित नहीं है। राजपिण्ड का शास्त्र में निषेध है।" राजा बोला-"अस्तु, ऐसा न सही। भिक्षा के समय राज कर्मचारी के साथ रहने से आप लोगों को भिक्षा सुलभ हो जायेगी।" फिर वाद-विवाद में विपक्षियों को परास्त करके राजा और राजकीय अधिकारी पुरुषों के साथ उन्होंने वसति में प्रवेश किया। इस प्रकार प्रथम ही प्रथम गुजरात में वसति मार्ग की स्थापना हुई। ३. दूसरे दिन विपक्षियों ने सोचा कि हमारे दोनों उपाय व्यर्थ हो गए। अब इनको यहाँ से निकालने का और कोई उपाय सोचना चाहिए। उन्होंने सोचा-राजा पटरानी के वश में है। वह जो कहती है, वही करता है। इसलिए किसी प्रकार रानी को प्रसन्न करके उसके द्वारा इन्हें निकलवाना चाहिए। बस फिर क्या कहना था? सभी अधिकारीगण अपने-अपने गुरुओं के कथन से आम, केले, दाख आदि फलों से भरी हुई डालियाँ तथा कई आभूषण सहित सुन्दर-सुन्दर वस्त्रों की भेंट लेकर रानी के पास गए। जिस तरह भक्त लोग भगवान् के सामने बलि-भेंट पूजा रखते हैं, उसी तरह उन्होंने रानी के आगे यह भेंट धरी। इससे रानी प्रसन्न हुई और उनका वांछित कार्य करने को उद्यत हुई। उसी समय राजा को रानी से कोई बात पुछवाने की आवश्यकता आ पड़ी। राजा ने एक नौकर को जो दिल्ली प्रान्त का रहने वाला था-रानी के पास भेजा और कहा कि यह बात रानी से कह १. तुलना कीजिए-ततः प्रभृति सञ्जझे, वसतीनां परम्परा। महभ्दिः स्थापितं वृद्धिमश्नुते नात्र संशयः (८९) (प्रभावक चरित्र)। २. इसी विजय के उपलक्ष में आचार्य जिनेश्वर सूरि की पूर्ण व कठोर साधुता के कारण इनकी परम्परा यहीं से सुविहित-विधि-खरतर पक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुई। देखें-महो० विनय सागर लिखित "वल्लभ भारती"। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy