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का बताया हुआ मार्ग प्रमाणस्वरूप माना जाता है, दूसरा नहीं।" तब राजा ने कहा-"बहुत ठीक है।" तदन्तर जिनेश्वरसूरि ने कहा-"राजन् ! हम लोग बहुत दूर देश से आये हैं, अतः अपने पूर्वाचार्यों के बनाये हुये सिद्धान्त ग्रन्थ हम अपने साथ नहीं लाये हैं। इसलिए, महाराज! इन चैत्यवासी आचार्यों के मठों से पूर्वाचार्यों के विरचित सिद्धान्त-ग्रन्थों की गठरी मंगवा दीजिए, जिनके आधार पर मार्गअमार्ग का निर्णय किया जा सके।" तब राजा ने उन चैत्यवासी यतियों को सम्बोधित करके कहा"ये वसतिवासी मुनि ठीक कहते हैं। पुस्तकें लाने के लिये मैं अपने सरकारी पुरुषों को भेजता हूँ। आप अपने यहाँ सन्देश भेज दें जिससे इनको वे पुस्तकें सौंप दी जायँ" वे चैत्यवासी यति जान गये थे कि इनका पक्ष ही प्रबल रहेगा, अत: चुप्पी साधकर बैठे रहे। तब राजा ने ही राजकीय पुरुषों को सिद्धान्त-ग्रन्थों की गठड़ी लाने के लिए शीघ्र भेजा। वे गये और शीघ्र ही पुस्तकों का बंडल ले आये। उसे लाते ही उसी समय वह खोला गया। देव-गुरु की कृपा से उसमें सबसे पहिले चतुर्दश पूर्वधर प्रणीत "दशवैकालिक सूत्र" हाथ में आया। उसमें भी सबसे पूर्व यह गाथा निकली
अन्नटुं पगडं लेणं, भइज सयणासणं।
उच्चारभूमिसंपन्नं, इत्थीपसुविवज्जियं॥ [साधु को ऐसे स्थान में रहना चाहिए जो स्थान साधु के निमित नहीं, किन्तु अन्य किसी के लिए बनाया गया हो, जिसमें खान-पान और सोने की सुविधा हो, जिसमें मल-मूत्र त्याग के लिए उपयुक्त स्थान निश्चित हो और जो स्त्री, पशु, पण्डग आदि से वर्जित हो।]
इस प्रकार की वसति में साधुओं को रहना चाहिए, न कि देव मन्दिरों में । यह सुनकर राजा ने कहा-यह तो ठीक ही कहा है। और जो सब अधिकारी लोग थे, उन्होंने जान लिया कि हमारे गुरु निरुतर हो गए हैं। तब वहाँ पर सब अधिकारी लोग पटवे से लेकर श्रीकरण मंत्री पर्यन्त राजा से प्रार्थना करने लगे-"ये चैत्यवासी साधु तो हमारे गुरु हैं।" इन लोगों ने समझा था कि राजा हमें बहुत मानता है। इसलिए हमारे लिहाज से हमारे साधुओं के प्रति भी पक्षपात करेगा ही। पर राजा पक्षपाती नहीं था, वह तो न्यायप्रिय था। इस अवसर को देखकर जिनेश्वरसूरि ने कहा-"महाराज ! यहाँ कोई श्रीकरण अधिकारी का गुरु है, तो कोई मंत्री का, तो कोई पटवों का गुरु है। अधिक क्या कहें, इनमें सभी का परस्पर गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना हुआ है। और भी हम आपसे पूछते हैं कि इस लाठी का सम्बन्ध किसके साथ है?" राजा ने कहा-"इसका सम्बन्ध मेरे साथ है।" तब जिनेश्वरसूरि ने कहा-"महाराज! इस तरह सब कोई किसी न किसी का सम्बन्धी बना ही हुआ है। यहाँ हमारा कोई सम्बन्धी नहीं है।' यह सुनकर राजा बोला-"आप मेरे आत्म-सम्बन्धी गुरु हैं।" इसके बाद राजा ने अपने अधिकारियों से कहा-"अरे, अन्य सभी आचार्यों के लिये रत्न पट्ट से निर्मित सात-सात गादियाँ बैठने के लिए हैं और हमारे गुरु नीचे आसन पर बैठे हैं, क्या हमारे यहाँ गादियाँ नहीं हैं? इनके लिये भी गादियाँ लाओ।" यह सुनकर आचार्य जिनेश्वरसूरि ने कहा-"राजन् ! साधुओं को गादी पर बैठना उचित नहीं है।" शास्त्रों में कहा है :
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