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आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि में
८. आचार्य जिनेश्वरसूरि के पश्चात् सूरियों में श्रेष्ठ जिनचन्द्रसूरि हुये, जिनके अष्टादश-नाममाला का पाठ तथा अर्थ सब अच्छी तरह जिह्वाग्र उपस्थित था । सब शास्त्रों के पारंगत इन महाराज ने अठारह हजार श्लोक प्रमाण वाली संवेगरंगशाला' की सं० १९२५ में रचना की । यह ग्रंथ भव्य जीवों के लिये मोक्ष रूपी महल के सोपान सा है । आपने जावालिपुर में जाकर श्रावकों की सभा में ‘“चीवंदणमावस्सय’' इत्यादि गाथाओं की व्याख्या करते हुए जो सिद्धान्त संवाद कहे थे उनको उन्हीं के शिष्य ने लिखकर तीन सौ श्लोकों के परिमाण का दिनचर्या ३ नामक ग्रन्थ तैयार कर दिया, जो श्रावक समाज के लिये बहुत ही उपकारी सिद्ध हुआ है । वे जिनचन्द्रसूरि भी अपने काल में जिन धर्म का यथार्थ प्रकाश फैलाकर देवगति को प्राप्त हुये ।
नवाङ्गी-टीकाकार श्री अभयदेवसूरि
९. तदनन्तर नवाङ्गी व्याख्याकार युगप्रधान श्रीमद् अभयदेवसूरि हुये । इन्होंने नौ अंगों की व्याख्या करने में जो अपने बुद्धि की कुशलता प्रकट की है उसका स्वरूप इस प्रकार है
साधुओं की चर्या में अग्रगण्य श्री अभयदेवसूरि जी क्रम से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए शम्भाण नामक ग्राम में गये। वहाँ पर किसी रोग के कारण आपका शरीर अस्वस्थ हो गया। जैसे-जैसे औषधि आदि का प्रयोग किया गया वैसे-वैसे घटने के बजाय रोग अधिक से अधिक बढ़ता ही गया । तनिक भी आराम नहीं हुआ। चतुर्दशी के दिन चार योजन दूर रहने वाले श्रावक भी महाराज के साथ पाक्षिक प्रतिक्रमण करने को आया करते थे। महाराज ने किसी समय अपने शरीर को अधिक रोग ग्रस्त जानकर सब श्रावकों को बुलाकर आदेश दिया, "आगामी चतुर्दशी के दिन हम . संथारा लेंगे। इसलिए मिथ्या दुष्कृत दान- क्षमतक्षामणा के वास्ते आप लोगों की उपस्थिति आवश्यक है।" सूरि जी के इस आदेशानुसार अनेक भक्तजन आ पहुँचे। उसके बाद त्रयोदशी के दिन अर्धरात्रि के समय शासनदेवी प्रगट हुई और उसने सूरि जी से कहा - " सोते हो या जागते हो?" दुर्बलतावश मन्द स्वर से सूरि जी ने कहा- "जागता हूँ।" देवी ने कहा- " शीघ्र उठिये और उलझी हुई सूत्र की इन नौ कूकड़ीयों को सुलझाइये।" सूरि जी बोले - " समर्थ नहीं हूँ, माँ ।" देवी बोली - "क्यों, शक्ति
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१. इसका संशोधन आचार्य देवभद्र और श्रीजिनवल्लभ गणि ने किया था।
२. जावालिपुर " जालौर " को कहते हैं जो वर्तमान में जोधपुर डिवीजन में है। इसका स्वर्णगिरी नाम भी कई ग्रन्थों में मिलता है जो पहाड़ पर बसा था, प्राचीन तीर्थ रूप में प्रसिद्ध है ।
३. संभवतः यह ग्रंथ प्राप्त नहीं है ।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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